हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।
जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।
वक्त भी उसकी रहमत करेगी जो खुद डरे,
वरना कायामत को आये कोरोना को पूरा मानता हूँ ।
हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।
जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।
मैं ईश्वर को मानता हूँ, तुम अल्लाह को मानते हो
।
बढ़े वैसे कदम जहाँ, हर शख्स को जानता हूँ ।
फिर छलके न आँसू किसी आफत पर
वैसे आँसु को अधुरा मानता हूँ ।
हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।
जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।
मैं मंदिर में फँसा हूँ, वे मस्जिद में छिपे हैं
।
हजारों सालों से यही दकियानुसी दलदल में धसे हैं
।
चले करने जिस करामात को, हर करामात जानता हूँ ।
करे ऐसे करामात जो उसे बेहुदा मानता हूँ ।
हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।
जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।
कुछ धर्म का नशा पिलाते हैं, कुछ मर्म का नशा
पीते हैं ।
पिलाकर नशा वे बड़े खुशगहमी में जीते हैं ।
उसके हर एक खुशगहमी को मैं कुराफात मानता हूँ ।
ऐसे करने वाले हर शख्स को जानता हूँ ।
हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।
जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।
-जेपी
हंस
बिल्कुल सर ऐसी बहुत सी आवाज है परन्तु सब लोग पंक्तिबद्ध नहीं कर सकते ऐसे सभी लोगों का आप प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।इसके लिए बहुत -बहुत आभार सर।शत-शत नमन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार...
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (7-4-2020 ) को " मन का दीया "( चर्चा अंक-3664) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार...
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteहौसला बढ़ाने हेतु आभार...
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