एक बार एक कवि और उसके सरकारी कर्मचारी मित्र की मुलाकात किसी मोड़ पर हुआ । बात-बात में सरकारी कर्मचारी ने कहाँ, “मैं बहुत देशभक्त हूँ और विदेशी चीजों का बहिष्कार करता हुँ ।
कवि मित्र- ज्यादा मत फेको, आप और हम कभी विदेशियों के बिना जी नहीं सकतें ।
सरकारी कर्मचारी- कैसे?
कवि मित्र-अच्छा! बताओं, अभी कहाँ जा रहे हो आप ?
सरकारी कर्मचारी- तपास से!मैं अभी ऑफिस जा रहा हूँ ।
कवि मित्र- ऑफिस तो अंग्रेजी शब्द है तो अंग्रेजों को अभी तक क्यों ढो रहे हो ?
सरकारी कर्मचारी- अच्छा !तो दफ्तर जा रहा हूँ ।
कवि मित्र- दफ्तर मत जा, यह तो अरबी शब्द है । अब अरब वालों से दोस्ती क्यों ?
सरकारी कर्मचारी- मैं कार्यालय जा रहा हूँ, वहाँ जाकर अपने पेशे का कार्य ईमानदारी से करने जा रहा हूँ ।
कवि मित्र- ईमानदारी छोड़. यह तो फारसी शब्द है और अपनी पेशा भी छोड़ दो क्योंकि यह भी फारसी शब्द है ।
सरकारी कर्मचारी- बिदकते हुए शोर मचाते हुए बोला तो क्या जमालगोटा खाकर साहब को बोल दू कि शूल हो गया है?
कवि मित्र- ज्यादा शोर मचा मचाओ, आप शोर भी नहीं मचा सकते, क्योंकि शोर भी विदेशी (फारसी) शब्द है, जमालगोटा भी नहीं खा सकता । यह भी विदेशी (पश्तो भाषा) का शब्द है और हाँ!साहब को यह मत बोल देना कि मुझे हैजा हो गया है. क्योंकि हैजा भी विदेशी (अरबी) शब्द है और हाँ !आप बीमार का बहाना भी नहीं बना सकते, क्योंकि बीमार शब्द भी विदेशी (फारसी) शब्द है ।
अन्त में सरकारी कर्मचारी खिझते हुए- अच्छा ! मैं सरकारी कर्मचारी तो हूँ न!
कवि मित्र- नहीं !आप सरकारी कर्मचारी भी नहीं हो सकते, क्योंकि सरकारी शब्द भी विदेशी (फारसी) शब्द है ।
सरकारी कर्मचारी गुस्से से- हवालात जा रहा हूँ।
कवि मित्र- नहीं श्रीमान, आप हवालात नहीं जा सकते, क्योंकि वह भी अरबी शब्द है । वहां जाओंगे तो वहाँ पर डंडे से स्वागत करने वाला बैठा हुआ दरोगा भी विदेशी है, क्योंकि दरोगा तुर्की शब्द है ।
सरकारी कर्मचारी निराश होते हुए बोला, "अब क्या करूँ?"
कवि मित्र- हमारा देश “वसुधैव कुटु्म्बकं”में विश्वास रखता है । देश भक्त का मतलब किसी भाषा या इन्सान से भेदभाव करना नहीं होता। हमने समय-समय पर सभी को अपनाया है ।
इसलिए जोर से बोलो “पुरा विश्व हमारा परिवार है”इस परिवार के सभी सदस्य को उचित सम्मान देगें ।
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हम किसानों के लिये सोचते है, क्यों? क्योंकि हम किसान के बेटे है। क्योंकि हम किसानों के खेत में उपजाया हुआ अन्न खाकर जिंदा है। हम किसानों के खेत में उपजाया हुआ अन्न की रोटियां तोड़ते हैं। हमारी सोच भी किसानों के खेतों की भांति उपजाऊ है। वे लोग ही सोचते हैं, किसानों के खिलाफ, जो कारपोरेट के पैसे से रोटियां तोड़ते हैं, जो बालकोनी में दो-चार पौधे उपजा किसान बन रहे हैं, जिन्हें सत्ता से किसानों के खिलाफ लिखने से रोटियां चलती है, जो सत्ता के अदम्य चापलूसी करते नहीं अघाते, जो सत्ता के अंधभक्ति में आकंठ डूबे है। उन्हें क्या पता आंदोलन व क्रांति क्या चीज होती है? आखिर पता भी कैसे चलेगा, सत्ता के मद में चूर रहने वालों को, सीसे के महलों में रहने वालों को, बाहरी दुनिया की आवाज कैसे पहुँच सकती है? जब तक की, सड़के वीरान हो, खामोश हो, सड़को पर क्रांति और आंदोलन की गूंज सुनाई न दी हो। -जेपी हंस
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सिंधु घाटी सभ्यता से उपजी
भारतीय समाज आर्यों, कुषाण, हुन, अफगान, तुर्क, खिलजी, लोधी, मुगलों से लेकर
अंग्रेजों तक के विदेशी आक्रमण, गुलामी और शोषण का दंश पाँच हजार सालों तक झेलते
हुए 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ और इस आजाद भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को
लागू हुआ साथ ही पाँच हजार साल तक चले सारे मनुवादी विधान को शुन्य घोषित कर दिया.
भारतीय
संविधान को निर्माण करने वाले और कोई नहीं वह व्यक्ति था जिसके समाज को मनुवादी
विधान से पाँच हजार सालों से मानसिक रूप से गुलाम बनाकर रखा गया था वो वह वर्ग था
जिसका मनुवादी विधान से एक मात्र कार्य दिया गया था मैले का गट्टर साफ करना/मैला
साफ करना/मरे हुए पशुओं को उठाना. उन्हें पाँच हजार सालों तक अछूत बनाकर रखा गया
था, वो वह वर्ग से था जिसको भारत के धार्मिक ग्रन्थों में शुद्र का दर्जा दिया गया
है, जिसकी उत्पति पैर से मानी गई है, जिन्हें शिक्षा, शस्त्र और सम्पति हासिल करने
का कोई अधिकार नहीं था लेकिन उस व्यक्ति ने सारे मनुवादी बेड़ियों को तोड़ते हुए
32 डिग्रियाँ हासिल कर ऐसा विधान रच डाला जहाँ सभी वर्गों के लोगों को समानता का
अधिकार हो. न कोई राजा होगा और न ही कोई रंग. वह व्यक्ति था विश्व रत्न बाबा साहेब
डॉ भीमराव अम्बेडकर. इन्होंने लगातार 2 वर्ष 18 दिन तक संविधान निर्माण के लिये
कार्य किया और अंततः 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा को संविधान निर्माण कर सौप
दिया ।
भारतीय संविधान के 70 साल- भारतीय संविधान लागु हुए 70 साल हो गए है लेकिन मनुवादी
मानसिकता वालों के दिलों पर अभी भी मनुवादी विधान की रट लगी हुई है. वे धर्मरूप
अफीम का नशा चखाकर फिर से मानसिक गुलामी की दलदल में धकेलना चाहते हैं. भारतीय
समाज विश्व का एक मात्र ऐसा समाज था जो जानवर के मुत्र तो पी सकता था लेकिन इंसानों
के हाथ का पानी नहीं पी सकता था, आज भी कही-कही इस तरह की भावना है. भारतीय
संविधान बनने से छुआछूत, भेदभाव, बेगारी प्रथा, देवदासी प्रथा, खाप की प्रथा जैसे
अनेक धार्मिक कुप्रथाओं पर लगाम लगा हैं. आजादी के बाद भी कही-कही यह स्थिति थी कि
जैसे वर्ग विशेष के लोगों के सामने जाने के लिए जुता/चप्पल उतार कर जाना पड़ता था.
उनके घर जाने पर साथ में बैठने नहीं दिया जाता था. अपने घर पर भी ऐसे वर्ग विशेष
के लोगों के आने पर खाट, कुर्सी छोड़कर उनके सामने गुलामों की तरह हाथ जोड़कर खड़े
होना पड़ता था. वर्ग विशेष लोगों के छोटे बच्चों को भी “मालिक” कहकर पुकारना पड़ता था.वर्ग विशेष के लोगों को “बाबू साहब” जैसे गुलामी मानसिकता वाले
शब्द कहकर पुकारना पड़ता था.वर्ग विशेष के सुदखोरों के सामने अपनी जमीन
जायदाद, गहना जेवर या खुद के परिवार के सदस्यों को गिरवी रखकर पैसा लेना पड़ता था.
यहाँ तक की चापाकल से पानी पीने के लिए और शादी में घोड़-सवारी के लिए भी कोर्ट की
लड़ाई लड़नी पड़ी है.
आज
देश में फिर से मनुवादी तंत्र हावी है और येनकेनप्रकारेन भारतीय संविधान को कमजोर
करने में लगे है. उन्हें अपनी धर्म की तो फिक्र है लेकिन किसी इंसान के लिए
रोजी-रोटी, मकान और शिक्षा की फिक्र नहीं है. उन्हें दलितों, शोषितों और पीड़ितों
की हक की कोई चिंता नहीं है, सभी लोगों को स्वतंत्र रूप से तार्किक शिक्षा की
जरूरत है. डॉ भीमराव अम्बेडकर ने कहाँ था- शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करों.
इसी मूल मंत्र के सहारे संविधान को मनुवादियों के बलि चढ़ने के बचा सकते हैं.
जय
भारत, जय संविधान
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भोजपुरी महफिल की
अस्मिता बचाने आई नेहा सिंह राठौड़.
भोजपुरी महफिल का इतिहासः-
भोजपुरी जगत हमेशा से ही समृद्ध लोक गीतों
की महफिल रही है. यह महफिल की शुरुआत भिखारी ठाकुर से शुरू होकर अनगिनत कलाकारों
के नाम सजाती हुई आगे बढ़ती है. भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी संस्कृति व साहित्य को एक नई पहचान
देन के साथ समाज में फैली कुरीतियों पर जमकर हल्ला बोला। विदेशिया, गबर-घिचोर
के साथ-साथ बेटी-वियोग और बेटी बेंचवा जैसे नाटकों के जरिये उन्होंने समाज में एक
नई चेतना फैलाई। बाल-विवाह, मजदूरी
के लिए पलायन और नशाखोरी जैसे मामलों पर उन्होने उस समय सवाल खड़े किए जब कोई इसके
ओर सोचना तो दूर बोलने को भी तैयार नही था।
इन्हीं कड़ी में 80 के दशक के मशहुर
लोक गीत गायिका शारदा सिन्हा ने भी भोजपुरी, मगही और मैथिली में पारम्परिक लोकगीत
के ऐसा नाम रोशन किया कि शादी-विवाह, छठ पूजा और अन्य धार्मिक पूजन में इनके गीत आज
भी गाये जाते हैं.
बिहार की नई शारदा सिन्हा- नेहा सिंह
राठौड़
इन
लोक कलाकारों का क्रम लगातार जारी है. इन्हीं नामों में एक चर्चित नाम जुड़ा है-
नेहा सिंह राठौर, नेहा सिंह राठौर का जन्म बिहार के भभुआ (कैमुर) के रामगढ़ में
जलदहा गाँव में हुआ था. इनके पिता जी का नाम श्री रमेश सिंह है. इनकी प्रारम्भिक
पढ़ाई अपने जिला में हुआ तत्पश्चात उच्च शिक्षा के लिए कानपुर की ओर प्रस्थान किया
जहाँ वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेज्युशन पास किया. वर्तमान में कोलकाता में
रहकर संगीत की शिक्षा ले रही है. नेहा ने अपना पहला गीत शारदा सिन्हा की लोकगीत को
गाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया, जिसके बदौलत आज सोशल मीडिया पर स्टार बन चुकी
हैं. इसके बोल है-
पटना से बैदा बुलाई दा नजारा गईनी
गुईया.
छोटकी ननदिया है, बड़की सौतनिया....
इसी लोकगीत के बाद नेहा सिंह राठौर ने
कोरोना, अप्रवासी मजदूर, बेरोजगारी, दहेज प्रथा, बाल विवाह, मतदान जागरूकता,
चुनावी गीत, बाढ़, छात्रों का दर्द किसान का दर्द और अन्य समसमायिक घटनाओं पर
लोकगीत के माध्यम से अपनी आवाज उठा रही है. जिससे सोशल मीडिया पर इनके प्रशंसक
बढ़कर करीब तीन मिलियन हो गए हैं. इनके कुछ गीतों को दो मिलियन से ज्यादा व्यूज
मिल चुके हैं. जो इस बात का प्रमाण है कि भोजपुरी गीतों की अश्लीलता भोजपुरी
गीत-गायन परंपरा का स्वाभाविक गुण न होकर एक थोपा हुआ कल्चर है.
भोजपुरी गीतों में अश्लीलता की बाते
गाहे-बेगाहे हर मंच से होती है. इस संबंध में बहुत सारे कलाकारों पर निशाने साधे
जाते हैं. भोजपुरी गीत और कलाकारों के संबंध में The Lallantop लिखता है-
यहाँ यह समझने
की बात है कि लोक-कला वो नहीं है जो लोक की आड़ में अपनी रोटियां सेंकी जाए और लोक
की संस्कृति विकृत हो, बल्कि लोककला तो वो है, जो लोक के पक्ष को कला के माध्यम से
फलक तक ले जाए और लोक की छवि को बेहतर बनाते हुए उसे समृद्ध करे. ऐसे में जो
व्यक्ति अपनी कला की माध्यम से ये करने का बीड़ा उठाता है, वही असली लोक-कलाकार
है.
आज नेहा सिंह राठौर भोजपुरी लोकगीत को बदनामी
की दाग को मिटाने आ गई है..यह लोकगीतों के माध्यम से लोक की आवाज को आवाम तक बखुबी
से पहुँच रहा है और लोक संगीत की साफ-सुथरी छवि को और समृद्ध करने का कार्य कर रही
है. इनका भाषा भोजपुरी, मगही और मैथिली है.
कोरोना महामारी के कारण जब लॉकडाउन हुआ
और मजदूरों का एक शहर से दूसरे शहर हजारों किलोमीटर पैदल जाना हुआ तो नेहा सिंह
गाती है...
“कोरोना महामारी के चलते मजदूर शहर से पैदले आपन गाँव चल
दिहल बाडन...
उनकर शरीर थक
गईल बा चलत-चलत आ मन रोवत बा...”
17 सिंतबर को जब पीएम मोदी का जन्मदिन था
उस दिन देश में कई जगह राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस के रूप में मनाया गया।
इस क्रम में नेहा सिंह राठौर ने भी भोजपुरी में एक गीत
गाकर बेरोजगारी के मुद्दे को उठाया। इस दौरान नेहा ने कुछ समय अंतराल पर अलग-अलग
वीडियो पोस्ट किया। इसमें वह देश में बेरोजगारी की समस्या को उठाती दिखीं।
‘अच्छा दिन आई गईले हो…’,
‘हाय-हाय रे गवर्नमेंट तोहार काम देख ला,
बबुआ घूमेलन नाकाम देख ला…’
और ‘
बेरोजगारी के आलम में थरिया पीटत बानी, बिहार से बेरोजगार बोलत बानी…’ जैसे शीर्षक के गाने गाए।
मोदी
सरकार ने तमाम विरोध के बावजूद कृषि बिल को संसद में पारित करवा लिया तो नेहा सिंह
लिखती है- मैंने हमेशा कहानियों में यही पढ़ा है कि एक गरीब किसान था. जाने वो दिन
कब आएगा जब कहानियों में एक अमीर किसान था जैसी बातें लिखी जाएंगी.
किसान
पर इनके नए भोजपुरी गीत के बोल है-
भादो
आषाढ़ जाहे जेठ के घाम, केहूं बुझे न कोहीं,
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