कपकपाती ठंड में रतन ताजा हवा खाने के लिए जैसे ही खिड़की खोला, उसकी
नजर एक आठ वर्षीय उस लड़की पर पड़ी, जो कचड़े की ढेर से कुछ चुन रही थी । बदन पर
फटे-चीटे कपड़े, बिना चप्पल के पॉव, बिना चादर ओढ़े ही सुबह के पाँच बजे इस
घने-कुहरे भरी सुबह में । रतन इस लड़की को लगातार एक हफ्ते से देख रहा था । वह
बिना लेट-लतीफ के इस काम में प्रतिदिन लग जाया करती थी । वह अपने श्रीमती जी को
कोसती, वाह ! मोटे गद्दे वाले लिहाफ में लिपटे, जिसके पास दर्जन
भर के ठंड के वस्त्र, शॉल, आधे दर्जन
चप्पल होने के बावजूद भी आठ बजे से पहले बिस्तर कभी नहीं छोड़ती । अगर मेरे
श्रीमती जो को इतनी सुविधाएं उपलब्ध नहीं होती तो पता चलता,
किस तरह उठी जाती है सबेरे-सबेरे । तब पंत
जी की ये पंक्तियाँ याद आती है ।
‘’हम क्या थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी ।
आओ विचारें आज मिलकर
समस्याएं सभी’’ ।
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