16 May, 2021

कोरोना माता




आखिर कब खत्म होगी,
भांति-भांति और 
नाना प्रकार की
माता गढ़ने की होड़।
जब हर इंसान को
जन्म देने वाली
"माता" होती ही है।
इंसान का जन्म
इंसान ही देती है,
यह सार्वभौम सत्य हैं,
इंसान का जन्म
कोई जानवर, पशुपक्षी
भूखंड या कोई वायरस
जन्म नहीं देता।
तो फिर गाय माता,
भारत माता और
और अब नई माता
"कोरोना माता" को अवतार
लेने की जरूरत क्यों?
किसी चीज की,
पवित्रता अपनी जगह 
हो सकती है लेकिन
दूसरी माता के सत्कार
के चक्कर में,
अपनी जन्म देने वाली
माता को उचित 
सेवा-सत्कार देकर
वृद्धाश्रम जाने से
कब रोकेंगे हम?


फोटोः www.dainikbhaskar.com से संभार..

05 December, 2020

किसानी क्रांति



हम किसानों के लिये सोचते है,
क्यों?
क्योंकि हम किसान के बेटे है।
क्योंकि हम किसानों के खेत में उपजाया हुआ
अन्न खाकर जिंदा है।
हम किसानों के खेत में उपजाया हुआ अन्न की रोटियां तोड़ते हैं।
हमारी सोच भी किसानों के खेतों की भांति उपजाऊ है।
वे लोग ही सोचते हैं, किसानों के खिलाफ,
जो कारपोरेट के पैसे से रोटियां तोड़ते हैं,
जो बालकोनी में दो-चार पौधे उपजा किसान बन रहे हैं,
जिन्हें सत्ता से किसानों के खिलाफ लिखने से रोटियां चलती है,
जो सत्ता के अदम्य चापलूसी करते नहीं अघाते,
जो सत्ता के अंधभक्ति में आकंठ डूबे है।
उन्हें क्या पता आंदोलन व क्रांति क्या चीज होती है?
आखिर पता भी कैसे चलेगा,
सत्ता के मद में चूर रहने वालों को,
सीसे के महलों में रहने वालों को,
बाहरी दुनिया की आवाज कैसे पहुँच सकती है?
जब तक की,
सड़के  वीरान हो,
खामोश हो,
सड़को पर क्रांति और आंदोलन की गूंज सुनाई न दी हो।
                    -जेपी हंस
 

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25 November, 2020

भारतीय समाज और संविधान




     सिंधु घाटी सभ्यता से उपजी भारतीय समाज आर्यों, कुषाण, हुन, अफगान, तुर्क, खिलजी, लोधी, मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक के विदेशी आक्रमण, गुलामी और शोषण का दंश पाँच हजार सालों तक झेलते हुए 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ और इस आजाद भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ साथ ही पाँच हजार साल तक चले सारे मनुवादी विधान को शुन्य घोषित कर दिया.

     भारतीय संविधान को निर्माण करने वाले और कोई नहीं वह व्यक्ति था जिसके समाज को मनुवादी विधान से पाँच हजार सालों से मानसिक रूप से गुलाम बनाकर रखा गया था वो वह वर्ग था जिसका मनुवादी विधान से एक मात्र कार्य दिया गया था मैले का गट्टर साफ करना/मैला साफ करना/मरे हुए पशुओं को उठाना. उन्हें पाँच हजार सालों तक अछूत बनाकर रखा गया था, वो वह वर्ग से था जिसको भारत के धार्मिक ग्रन्थों में शुद्र का दर्जा दिया गया है, जिसकी उत्पति पैर से मानी गई है, जिन्हें शिक्षा, शस्त्र और सम्पति हासिल करने का कोई अधिकार नहीं था लेकिन उस व्यक्ति ने सारे मनुवादी बेड़ियों को तोड़ते हुए 32 डिग्रियाँ हासिल कर ऐसा विधान रच डाला जहाँ सभी वर्गों के लोगों को समानता का अधिकार हो. न कोई राजा होगा और न ही कोई रंग. वह व्यक्ति था विश्व रत्न बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर. इन्होंने लगातार 2 वर्ष 18 दिन तक संविधान निर्माण के लिये कार्य किया और अंततः 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा को संविधान निर्माण कर सौप दिया ।




भारतीय संविधान के 70 साल-  भारतीय संविधान लागु हुए 70 साल हो गए है लेकिन मनुवादी मानसिकता वालों के दिलों पर अभी भी मनुवादी विधान की रट लगी हुई है. वे धर्मरूप अफीम का नशा चखाकर फिर से मानसिक गुलामी की दलदल में धकेलना चाहते हैं. भारतीय समाज विश्व का एक मात्र ऐसा समाज था जो जानवर के मुत्र तो पी सकता था लेकिन इंसानों के हाथ का पानी नहीं पी सकता था, आज भी कही-कही इस तरह की भावना है. भारतीय संविधान बनने से छुआछूत, भेदभाव, बेगारी प्रथा, देवदासी प्रथा, खाप की प्रथा जैसे अनेक धार्मिक कुप्रथाओं पर लगाम लगा हैं. आजादी के बाद भी कही-कही यह स्थिति थी कि जैसे वर्ग विशेष के लोगों के सामने जाने के लिए जुता/चप्पल उतार कर जाना पड़ता था. उनके घर जाने पर साथ में बैठने नहीं दिया जाता था. अपने घर पर भी ऐसे वर्ग विशेष के लोगों के आने पर खाट, कुर्सी छोड़कर उनके सामने गुलामों की तरह हाथ जोड़कर खड़े होना पड़ता था. वर्ग विशेष लोगों के छोटे बच्चों को भी मालिक कहकर पुकारना पड़ता था. वर्ग विशेष के लोगों को बाबू साहब जैसे गुलामी मानसिकता वाले शब्द कहकर पुकारना पड़ता था. वर्ग विशेष के सुदखोरों के सामने अपनी जमीन जायदाद, गहना जेवर या खुद के परिवार के सदस्यों को गिरवी रखकर पैसा लेना पड़ता था. यहाँ तक की चापाकल से पानी पीने के लिए और शादी में घोड़-सवारी के लिए भी कोर्ट की लड़ाई लड़नी पड़ी है.

     आज देश में फिर से मनुवादी तंत्र हावी है और येनकेनप्रकारेन भारतीय संविधान को कमजोर करने में लगे है. उन्हें अपनी धर्म की तो फिक्र है लेकिन किसी इंसान के लिए रोजी-रोटी, मकान और शिक्षा की फिक्र नहीं है. उन्हें दलितों, शोषितों और पीड़ितों की हक की कोई चिंता नहीं है, सभी लोगों को स्वतंत्र रूप से तार्किक शिक्षा की जरूरत है. डॉ भीमराव अम्बेडकर ने कहाँ था- शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करों. इसी मूल मंत्र के सहारे संविधान को मनुवादियों के बलि चढ़ने के बचा सकते हैं.

      जय भारत, जय संविधान

 


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26 September, 2020

देश में अब रोज़गार नहीं है।





डिग्रियां टंगी दीवार सहारे,
मेरिट का ऐतेवार नहीं है,
सजी है अर्थी नौकरियों की,
देश में अब रोज़गार नहीं है।

शमशान हुए बाज़ार यहां सब,
चौपट कारोबार यहां सब,
डॉलर पहुंचा आसमान पर,
रुपया हुआ लाचार यहां सब,
ग्राहक बिन व्यापार नहीं है,
देश में अब रोज़गार नहीं है।

चाय से चीनी रूठ गई है,
दाल से रोटी छूट गई है,
साहब खाएं मशरूम की सब्जी,
कमर किसान की टूट गई है,
देश में अब रोज़गार नहीं है।

दाम सिलेंडर के दूने हो गए,
कल के हीरो नमूने हो गए,
मेकअप - वेकप हो गया महंगा,
चांद से मुखड़े सूने हो गए,
नारी है पर श्रृंगार नहीं है,
देश में अब रोज़गार नहीं है।

साधु - संत व्यापारी हो गए,
व्यापारी घंटा - धारी हो गए,
चोर उचक्के नेता बन गए,
कैद में आंदोलनकारी हो गए,
सरकार में कोई सरोकार नहीं है,
युवा मगर लाचार नहीं है
देश में अब रोज़गार नहीं है। देश में अब रोज़गार नहीं है।

✍️पवन सिंह

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23 September, 2020

बिहार की नई शारदा सिन्हा- नेहा सिंह राठौड़

भोजपुरी महफिल की अस्मिता बचाने आई नेहा सिंह राठौड़.

भोजपुरी महफिल का इतिहासः-

      भोजपुरी जगत हमेशा से ही समृद्ध लोक गीतों की महफिल रही है. यह महफिल की शुरुआत भिखारी ठाकुर से शुरू होकर अनगिनत कलाकारों के नाम सजाती हुई आगे बढ़ती है. भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी संस्कृति व साहित्य को एक नई पहचान देन के साथ समाज में फैली कुरीतियों पर जमकर हल्ला बोला। विदेशिया, गबर-घिचोर के साथ-साथ बेटी-वियोग और बेटी बेंचवा जैसे नाटकों के जरिये उन्होंने समाज में एक नई चेतना फैलाई। बाल-विवाह, मजदूरी के लिए पलायन और नशाखोरी जैसे मामलों पर उन्होने उस समय सवाल खड़े किए जब कोई इसके ओर सोचना तो दूर बोलने को भी तैयार नही था।

इन्हीं कड़ी में 80 के दशक के मशहुर लोक गीत गायिका शारदा सिन्हा ने भी भोजपुरी, मगही और मैथिली में पारम्परिक लोकगीत के ऐसा नाम रोशन किया कि शादी-विवाह, छठ पूजा और अन्य धार्मिक पूजन में इनके गीत आज भी गाये जाते हैं.

बिहार की नई शारदा सिन्हा- नेहा सिंह राठौड़

      इन लोक कलाकारों का क्रम लगातार जारी है. इन्हीं नामों में एक चर्चित नाम जुड़ा है- नेहा सिंह राठौर, नेहा सिंह राठौर का जन्म बिहार के भभुआ (कैमुर) के रामगढ़ में जलदहा गाँव में हुआ था. इनके पिता जी का नाम श्री रमेश सिंह है. इनकी प्रारम्भिक पढ़ाई अपने जिला में हुआ तत्पश्चात उच्च शिक्षा के लिए कानपुर की ओर प्रस्थान किया जहाँ वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेज्युशन पास किया. वर्तमान में कोलकाता में रहकर संगीत की शिक्षा ले रही है. नेहा ने अपना पहला गीत शारदा सिन्हा की लोकगीत को गाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया, जिसके बदौलत आज सोशल मीडिया पर स्टार बन चुकी हैं. इसके बोल है-

पटना से बैदा बुलाई दा नजारा गईनी गुईया.

छोटकी ननदिया है, बड़की सौतनिया....

                       


       इसी लोकगीत के बाद नेहा सिंह राठौर ने कोरोना, अप्रवासी मजदूर, बेरोजगारी, दहेज प्रथा, बाल विवाह, मतदान जागरूकता, चुनावी गीत, बाढ़, छात्रों का दर्द किसान का दर्द और अन्य समसमायिक घटनाओं पर लोकगीत के माध्यम से अपनी आवाज उठा रही है. जिससे सोशल मीडिया पर इनके प्रशंसक बढ़कर करीब तीन मिलियन हो गए हैं. इनके कुछ गीतों को दो मिलियन से ज्यादा व्यूज मिल चुके हैं. जो इस बात का प्रमाण है कि भोजपुरी गीतों की अश्लीलता भोजपुरी गीत-गायन परंपरा का स्वाभाविक गुण न होकर एक थोपा हुआ कल्चर है.

भोजपुरी गीतों में अश्लीलता की बाते गाहे-बेगाहे हर मंच से होती है. इस संबंध में बहुत सारे कलाकारों पर निशाने साधे जाते हैं. भोजपुरी गीत और कलाकारों के संबंध में The Lallantop लिखता है-

यहाँ यह समझने की बात है कि लोक-कला वो नहीं है जो लोक की आड़ में अपनी रोटियां सेंकी जाए और लोक की संस्कृति विकृत हो, बल्कि लोककला तो वो है, जो लोक के पक्ष को कला के माध्यम से फलक तक ले जाए और लोक की छवि को बेहतर बनाते हुए उसे समृद्ध करे. ऐसे में जो व्यक्ति अपनी कला की माध्यम से ये करने का बीड़ा उठाता है, वही असली लोक-कलाकार है.

आज नेहा सिंह राठौर भोजपुरी लोकगीत को बदनामी की दाग को मिटाने आ गई है..यह लोकगीतों के माध्यम से लोक की आवाज को आवाम तक बखुबी से पहुँच रहा है और लोक संगीत की साफ-सुथरी छवि को और समृद्ध करने का कार्य कर रही है. इनका भाषा भोजपुरी, मगही और मैथिली है.

कोरोना महामारी के कारण जब लॉकडाउन हुआ और मजदूरों का एक शहर से दूसरे शहर हजारों किलोमीटर पैदल जाना हुआ तो नेहा सिंह गाती है...

कोरोना महामारी के चलते मजदूर शहर से पैदले आपन गाँव चल दिहल बाडन...

उनकर शरीर थक गईल बा चलत-चलत आ मन रोवत बा...

                      

 

 17 सिंतबर को जब पीएम मोदी का जन्मदिन था उस दिन देश में कई जगह राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस के रूप में मनाया गया।

इस क्रम में नेहा सिंह राठौर ने भी भोजपुरी में एक गीत गाकर बेरोजगारी के मुद्दे को उठाया। इस दौरान नेहा ने कुछ समय अंतराल पर अलग-अलग वीडियो पोस्ट किया। इसमें वह देश में बेरोजगारी की समस्या को उठाती दिखीं।

अच्छा दिन आई गईले हो…’,

हाय-हाय रे गवर्नमेंट तोहार काम देख ला,

बबुआ घूमेलन नाकाम देख ला…’ 

 

 

और बेरोजगारी के आलम में थरिया पीटत बानी, बिहार से बेरोजगार बोलत बानी…’ जैसे शीर्षक के गाने गाए।


 

मोदी सरकार ने तमाम विरोध के बावजूद कृषि बिल को संसद में पारित करवा लिया तो नेहा सिंह लिखती है- मैंने हमेशा कहानियों में यही पढ़ा है कि एक गरीब किसान था. जाने वो दिन कब आएगा जब कहानियों में एक अमीर किसान था जैसी बातें लिखी जाएंगी.

किसान पर इनके नए भोजपुरी गीत के बोल है-

भादो आषाढ़ जाहे जेठ के घाम, केहूं बुझे न कोहीं,


 

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29 August, 2020

ट्विटर पर सहायक प्रोफेसर अभ्यर्थियों ने परीक्षा के लिए अभियान चलाया...



वर्तमान समय में अपने बातों को सरकार तथा मिडिया तक पहुँचाने में सोशल मिडिया की भूमिका सराहनीय रही है. बिहार राज्य विश्वविद्यालय सेवा आयोग द्वारा निकलने वाली सहायक प्रोफेसर, जिसका परिनियम राजभवन द्वारा अनुमोदित किया जा चुका है. हालांकि परिनियम विवादों में आने के कारण फिर से संशोधन हेतु राजभवन जा चुका है ।

      नेट/जेआरएफ संघ द्वारा परीक्षा द्वारा भर्ती की मांग को लेकर हैशटैग   #BiharAssistProfessorByExam द्वारा लगातार अभियान चलाया जा रहा है. इस दिशा में अपनी मांगों को लेकर ट्विटर पर अभियान चलाया. इसमें बिहार ट्रेडिंग में यह टॉप रहा. पिछले कुछ दिनों पहले इस संघ ने मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री, उपमुख्यमंत्री, राज्यपाल, नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव, तेज प्रताप यादव, पप्पु यादव, चिराग पासवान, और उपेन्द्र कुशवाहा को मेल करके अपनी मांगों को लेकर गुहार लगाई थी. इससे पहले इस संघ के सदस्यों द्वारा इन सभी नेताओं से मिल कर प्रतिवेदन सौप चुके हैं और अभी भी इन सभी से मिलकर अपनी मांगों को रख रहे हैं.

      ट्विटर पर अभियान का नेतृत्व कर रहे डॉ राजेश ठाकुर ने लिखा है- 


          #BiharAsstProfessorByExam

एक सदस्य हरिशंकर कुमार लिखते है कि

 आदरणीय @NitishKumar जी NET/JRF/और Ph.D के अभ्यर्थियों की मांग है कि न्यू एजुकेशन पॉलिसी के तहत बिहारी बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए गुणवत्तापूर्ण परीक्षा के माध्यम से बिहार Assistant Professor की भर्ती प्रक्रिया पूर्ण करवाई जाए। जिससे बिहार के छात्रों का भविष्य बन सके।🙏

एक अन्य सदस्य प्रिंस कुमार पेपर की कटिंग, जिसमें परीक्षा द्वारा भर्ती की मांग लिखा है उसकों टैंग करते हैं.


कई सदस्य परीक्षा से भर्ती को लेकर मीम भी अपनी ट्विट में टैग कर रहे हैं.


इसी तरह अन्य सदस्य कन्हैया झा, प्रिया वर्मा,  निरज, सौरभ कुमार, अमृत्यंजय ओझा, विवेक विशाल, राज अमन, भीम सिंह चंदेल, अभिषेक कुमार, प्रिंस कुमार, मणिष कुमार भारदवाज, प्रभाकर, नारायण झा और ब्लॉगर जेपी हंस ने भी ट्विटर पर अभियान चलाया और आगे भी चलाने की तैयारी कर ली है..

 

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28 August, 2020

बिहार सहायक प्रोफेसर नियुक्ति प्रक्रिया से नेट/जेआरएफ अभ्यर्थियों की नाराजगी.


      फोटोः गुगल से संभार...

राजभवन पटना द्वारा सहायक प्राध्यापक नियुक्ति परिनियम- 2020 निर्गत कर दिया गया है जिसे प्रायः यू. जी. सी. रेग्यूलेशन - 2018 के आधार पर कहा जा रहा है । पड़ताल करने और समझने की आवश्यकता है कि यह नियम कितना कारगर साबित हो सकता है ! इस परिनियम से कुशल और योग्य प्राध्यापकों की नियुक्ति नहीं करने की ओछी मानसिकता साफ-साफ झलक रहा है ।

मालूम हो कि भारत सरकार वर्ष में दो बार यू. जी. सी. नेट-जेआरएफ परीक्षा आयोजित कर, प्राध्यापक अहर्ता हेतु प्रमाण-पत्र निर्गत करती है, लेकिन इस सहायक प्राध्यापक नियुक्ति प्रक्रिया में नेट वालें अभ्यर्थी 100 अंक में मात्र 35 से 47 के बीच हीं रह रहे हैं, अभ्यर्थी लोंग इस नियुक्ति प्रक्रिया में अपनी पात्रता को भी नहीं बचा पा रहे हैं । जहाँ अब स्वयं सरकार, स्वयं द्वारा निर्गत प्रमाण-पत्र को रद्दी की टोकड़ी में फेकने हेतु प्रेरित कर रही है, क्योंकि बी.पी.एस.सी. द्वारा 2014 के नियुक्ति में नेट अनिवार्य था, जो आधार क्वालिफिकेशन के रूप में रखा गया था और पीएचडी के लिए अधिभार अंक 10 था । जहाँ अब राजभवन द्वारा निर्गत परिनियम- 2020 में नेट के प्राथमिकता को समाप्त करते हुए पीएचडी के लिए 30 अंक दे कर, नियुक्ति के लिए प्रभावी कर दिया गया है, जिसका आधार यू. जी. सी. रेग्यूलेशन 2018 बताया जा रहा है । लेकिन गौर करने की बात यह है कि यू. जी. सी. रेग्यूलेशन 2018 के अनुसार प्राध्यापक नियुक्ति के लिए पीएचडी को आधार रूप में प्रभावी होने की तिथि जुलाई 2021 है । अन्य राज्य के प्राध्यापक नियुक्ति प्रक्रिया को देखा जाए तो वहाँ इस प्रकार के प्रकिया को नहीं अपनाया गया है ।


मैट्रिक और इन्टर के अंकों के लिए अधिभार को भी समाप्त कर, अंक वितरण प्रणाली को भी बदल दिया गया है । अन्य राज्य में अंकों के आधार, परीक्षा के आधार और इन्टरव्यू के आधार पर भी नियुक्ति किया जाता है, लेकिन यहाँ सिर्फ पीएचडी वालों के लिए हीं यह परिनियम बनाया गया है जो नेट किये हुए मेधावी छात्र-छात्राओं के साथ भविष्य के साथ खिलवाड़ है । बिहार जैसे राज्यों में कितने दिनों के बाद नियुक्ति प्रकिया आती है, उसमें भी इस प्रकार के नियम को बनाकर मानसिक प्रताड़ना देना कहाँ तक उचित है ।


जहाँ देश में शिक्षा के स्तर को सम्बर्धित करने के लिए इतने प्रयास हो रहे हैं, वहीँ मात्र पीएचडी डिग्री के आधार पर नियुक्ति करना कितना श्रेयस्कर होगा । भारत सरकार द्वारा निर्गत नेट-जेआरएफ का प्रमाण अब कौड़ी के भाव का भी नहीं रह गया है और मेधावी छात्र-छात्राओं के साथ यह राजनीति ठीक नहीं है । उदाहरण के रूप में देखा जाए तो एक प्राथमिक शिक्षक बनने के लिए बीटेट करवाती है, हाईस्कूल के शिक्षक के लिए एसटेट करवाती है, जिसके बिना आप फॉर्म तक नहीं भर सकते और साथ में प्रशिक्षण की डिग्री आवश्यक है । लेकिन यहाँ सरकार यू. जी. सी. नेट-जेआरएफ किये हुए लोंगों को मानसिक रोगी बनाने के लिए मजबूर कर रही है ।

सरकार और शिक्षा विभाग को इस परिनियम पर पुनर्विचार कर छात्र-छात्राओं के भविष्य के लिए उचित कदम उठाकर शिक्षा के क्षेत्रों में उचित प्रयास आवश्यक है । बी. पी. एस. सी. 2014 के अनुसार अंको का विभाजन और नियम एकदम सटिक था, जो इसमे भी लागू होना चाहिए । यदि नियम बदलने की जरूरत पड़ी तो स्क्रिनिंग के लिए परीक्षा भी आवश्यक कर देना चाहिए । राजभवन के प्राध्यापक नियुक्ति परिनियम इस प्रकार से कहीँ पर सफल नहीं है, बल्कि कुशल और मेधावी छात्र-छात्राओं के पात्रता को समाप्त कर, शिक्षा के क्षेत्र में गिरावट लाने की साजिश है, जिस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ।


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