हिन्दी को कामकाज की भाषा बनाने की कितनी ही दलीलें क्यों न दी जाएं
पर अच्छी नौकरियों में प्राथमिकता अंग्रेजी बोलने और जानने वालों को दी जाती है ।
ये मुट्ठीभर अंग्रेजी पढ़ने और समझने वाले ही पद पाकर देश की दशा और दिशा तय करते हैं
और हिन्दी के जानकार मन मसोस कर रह जाते हैं । आजादी के बाद का हिन्दी को
राष्ट्रभाषा बनाने का सपना आज भी अधूरा है । सरकारी संस्थान हिन्दी को तिरस्कार ही
देते आए है वहीं राजभाषा अधिनियम के चलते भले ही कुछ काम हिन्दी में करना पड़े, पर
अधिकता अंग्रेजी को ही रहती है यानि देश के अंदर आज भी हिन्दी अपनी पहचान और हक
तलाश रही है । इसकी वजह देश की भाषाई अनेकता जैसे कारण भी है यथा मिजोरम,
नागालैंड. तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक, असम, गोवा और उतर-पूर्वी राज्य खुद को हिन्दी
से नहीं जोड़ पाए है । खेद की विषय है कि राष्ट्रभाषा के नाम पर आज भी देश एकमत
नहीं है मगर समय की मांग है कि शासन के स्तर पर इस दिश में सहमति बनाते हुए सार्थक
और दृढ़तापूर्वक किया जाए ।
No comments:
Post a Comment
अपना कीमती प्रतिक्रिया देकर हमें हौसला बढ़ाये।