19 May, 2021

पारुल खख्खर - शववाहिनी गंगा की कवयित्री







पारुल खख्खर एक गुजराती लेखिका है । वह न लिबरल है, न वामी, न ही वह विरोध, प्रतिरोध, असहमति की कवि भी कभी रही । असल में तो वे हिन्दुत्वी जमात की लाडली रही हैं । आर.एस.एस के गुजरात मुखपत्र से जुडे राजनीतिक इतिहासकारमोदी द्वारा पदमश्री से सम्मानित विष्णु पांड्या पारुल को गुजराती काव्य साहित्य की आगामी नायिका तक बता चुके थें ।

      कोरोना महामारी के इस दौर में जहाँ सरकार द्वारा मरीजों को समय पर ऑक्सीजन न मिलना, हॉस्पिटल में बेड न मिलना, जब हाउसफुल श्मशानों और लकड़ियों के घोर अभाव के चलते उन्हे गंगा में खुले बहा देना, हाथ-भर जमीन में गड्ढा खोदकर जैसे-तैसे दफनाने और गंगा जैसी पावन नदियों में लाश बहाने पर लोग मजबूर हो रहे हैं ।  महामारी के इस दौर में इस महान विभीषिका को सरकार और नेताओं द्वारा प्रायोजित बता रहे हैं, वहीं न्यायपालिका तक इसे सरकारी नरसंहारकरार देती है. ऐसे में गुजराती कवयित्री की शववाहिनी गंगाकविता मौजूदा कोरोना काल में लाशों को गंगा में दफनाने व बहाने की सरकारी नाकामी को उजागर करती है ।

      संघी आई.टी. सेल को रामराज में मेरा साहब नंगा और रंगा-बिल्ला की उपमा कुछ ज्यादा ही मिर्ची लगने लगी है और ये सब ठीक उसी भाषा में उसी निर्लज्जता के साथ इन कवयित्री के पीछे पड़ गए हैं जैसे वे जेएनयू और जामिया की लड़कियों के पीछे पड़ते हैं । सिर्फ 14 पंक्तियों की इस कविता के लिए मात्र 48 घंटों में 28 हजार गालियां- अपशब्दों से भरी टिप्पणी हासिल की है । इसका कसूर सिर्फ इतना है कि गंगा में बहती लाशों को देखकर वे विचलित हो गई और सरकारी नाकामियों को उजागर करती कविता लिख डाली । इस कविता को असमी, हिन्दी, तमिल, मलयालम, भोजपुरी, अंग्रेजी, बंगाली भाषाओं में अनुवाद हो गया ।


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