24 December, 2017

चुनाव या अखाडा

      आजकल हमारा पुरा देश ही राजनितिक दलों का अखाड़ा बना हुआ है । चाहे वह लोकसभा चुनाव हो, राज्यसभा, विधानसभा, विधान परिषद् चुनाव हो या नगरपालिका/नगर निगम के मेयर, पार्षद का चुनाव या पंचायती चुनाव के मुखिया, सरपंच, पंच या वार्ड सदस्य का हो या कॉलेज का छात्र संघ चुनाव । सभी में राजनितिक दल अपना प्रत्याशी खड़ा कर पूरी चुनाव को अखाड़ा बनाने का प्रयास करते हैं ।
      लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधानपरिषद् चुनाव तो सभी राज्य में राजनितिक दलों के आधार पर लड़ा जाता है पर नगर निगम या पंचायत के चुनाव में कई राज्य में राजनितिक दल प्रत्याशी खड़ा करते हैं या बिना राजनितिक दल द्वारा प्रत्याशी खड़ा किये भी चुनाव होता है ।
      छात्र संघ चुनाव में सभी राजनितिक दल अपना प्रत्याशी खड़ा करते हैं । अधिकतर छात्र संघ चुनाव राजनितिक दलों के नाक का विषय बन जाता है, जिसके लिए वे साम-दाम-दंड-भेद की निति अपनाने सी भी परहेज नहीं करते ।
      अभी हाल ही में जमशेदपुर के कोल्हान विश्वविद्यालय के छात्र संघ का चुनाव सम्पन्न हुआ । छात्र संघ चुनाव में प्रत्याशियों के सूचि की स्कुटनी में जितना बवाल हुआ, उससे यही लगता है कि आगे का पटकथा खुद तैयार है । पिछले साल भी इसी तरह चुनाव में या चुनाव के बाद यहाँ के विश्वविद्यालयों में मार-पिट की घटना घटी थी । यह सब को मालूम है कि छात्र संघ चुनाव राजनितिक दलों के नये प्रयोग का अखाड़ा है या यो कहे कि एक प्रयोगशाला है । छात्र-छात्रों में लड़ाकर चुनाव जीतना इनका काम होता है ।
      पंचायत चुनाव या नगर निगम का चुनाव में भी लगभग यही स्थिति होती है । राजनितिक दल चुनाव जीतने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं ।
      मैंने अपने विभाग के यूनियन का चुनाव देखा है, जहाँ सहमति से प्रत्याशी खड़ा होते हैं । अगर सहमति नहीं बनी तो एक से अधिक प्रत्याशी खड़ा होते हैं । शांतिपूर्वक मतदान होता है । जीतने के बाद भी जीतने वाले प्रत्याशी और हारे हुए प्रत्याशी प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं । लेकिन छात्र संघ चुनाव, जो कि महज एक साल के लिए ही चुने जाते हैं । वह भी धैर्य और शान्ति का माहौल कायम करने में सक्षम नहीं होते ।
      क्या यह बेहतर नहीं होता कि कम से कम पंचायत चुनाव, नगरपालिका चुनाव या छात्र संघ के चुनाव बिना राजनितिक दलों के लड़ा जाये ? जिससे राजनितिक दलों का दखलंदाजी बन्द हो । राजनितिक दलों का प्रयोगशाला न बने, न ही उनका अखाड़ा बने । जिससे छात्रों के पढ़ाई बाधित न हो । छात्र एक होकर शांति कायम रख सके ।
      भारतीय राजनीतिक में सम्पूर्ण क्रान्ति के जनक लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि दलविहिन लोकतंत्र से ही अच्छे भारत का निर्माण हो सकता है ।
      क्या यह बेहतर नहीं होता कि छात्र संघ चुनाव या पंचायत चुनाव या नगर निगम चुनाव में सहमति के आधार पर प्रत्याशी खड़ा किया जाए । यह दुर्भाग्य की बात है कि कोई भी चुनाव हो राजनितिक दल चुनाव को जाति या धर्म के आधार पर लोगों में फूट डालकर चुनाव जीतना चाहते हैं । वे अंग्रेजों की नीति पर ही चलना चाहते हैं- फूट डालो और राज करो
      दुर्भाग्य की बात है कि हमारा देश आज भी इसी नीति पर चल रहा है । कोई भी चुनाव हो अपने लाभ के लिए हथकंडे अपनाकर चुनाव जीतते हैं । जो गलत तरीका से चुनाव जीतता है वो अपनी कार्यशैली भी इसी तरीके से बना कर रखता है ।
      वक्त की जरूरत है कि छात्र संघ का चुनाव हो या पंचायत या नगरपालिका के चुनाव सभी सहमति के आधार पर लड़े जाए । सभी छात्र मिलकर सर्वसम्मति से एक प्रत्याशी खड़ा करे जो सबको मान्य हो । अगर सहमति न बने तो एक से अधिक प्रत्याशी खड़ा किये जाए । चुनाव जीतने के बाद शांतिपूर्वक से सभी कार्य सुचारू रूप से किया जाये । कोई अशांति की भावना किसी छात्र-छात्रा के मन में नहीं आना चाहिए ।

      

पद, पैरवी और पुरस्कार


        

     पद, पैरवी और पुरस्कार का आपस में घनिष्ठ नाता है । पद की प्रतिष्ठा होती है इसलिए पद की लालसा में मनुष्य पैरवी करने से गुरेज नहीं करता पर पैरवी के लिए पैसे की जरूरत होती है अन्यथा किसी मंत्री-संत्री से पैरवी में पैसे के बदले में कुछ खातिरदारी कर पद प्राप्त किया जा सकता है । यह खातिरदारी किस रूप में करनी होगी यह मंत्री जी पर निर्भर करता है । अगर आप पुरूष राज है तो आपको मंत्री जी के बीवी, बाल और बच्चों के कपड़े तक धोना पड़ सकता है साथ ही उनके यहाँ नौकरीगिरी का काम करना पड़ेगा सो अलग । अगर आप महिला है तो पता नहीं आप को इज्जत भी दाँव पर लगानी पड़ सकती है अन्यथा आपकी पैरवी अधूरी रह जाएगी । हालांकि आज कल पैरवी के तौर-तरीकों में भी बदलाव आने लगे है ।
      पुरस्कार का भी पद से नाता है। इसके लिए आपको जुगाड़ लगाना पड़ सकता है । जिसे शुद्ध रूप में पैरवी कहा जाता है । पुरस्कार में बवाल हर जगह होती है । चाहे वह नोबेल पुरस्कार, भारत रत्न, साहित्य अकादमी हो या किसी विभाग द्वारा दिया गया पुरस्कार । सब जगह पुरस्कार पाने के रूप बदल रहे हैं । हालांकि उसकी प्रक्रिया पुरी जरूर होती है पर मन में शंका रह जाती है कि पुरस्कार मिलेगी या नहीं ? हाँ, अगर साहेब यानि बॉस चाहे तो पुरस्कार मिलने की संभावना बढ़ जाती है । बहुतायत पुरस्कार तो उन्हीं लोगों को दी जाती है जिनके ऊपर निर्णायक मंडली का हाथ हो ।

      पुरस्कार न मिलने वालों का भी कोई मलाल होता है । वह अगले बार पुरस्कार पाने की जुगाड़ में लग जाता है । असली मलाल तो उस व्यक्ति को होता है जिसके नम्बर वन यानि प्रथम पुरस्कार नहीं प्राप्त होता है । वह विरोध का स्वर पहले तो नहीं, पुरस्कार पाने के बाद करते हैं, क्योंकि पुरस्कार देते समय बड़े-बड़े अधिकारी होते हैं । इतना सम्मान तो वे रखते ही हैं । पुरस्कार वितरण के बाद जब सभी अधिकारी चले जाते हैं तब अन्य लोगों के सामने अपनी मन की भड़ास निकालते हैं । भड़ास भी ऐसा जिसमें जमकर भड़ास निकालना कह सकते हैं । वे यह तो कहते हैं कि पुरस्कार वितरण में धांधली हुई है पर यह नहीं बताते हैं कि कहाँ पर धांधली होती है । जैसे कोई नेता किसी दंगे के दोषियों के पकड़ जाने पर कहता है कि वह निर्दोंष है पर दोषी कौन है यह नहीं बताते ।

08 December, 2017

बन गई थी वो दोस्त मेरे...



बन गई थी वो दोस्त मेरे बाजार-ए-शाम खड़े-खड़े ।
निकल गई किसी और के संग, रह गए अरमां धरे-धरे ।
वो तो कटी पतंग थी, मैं तो ठहरा मांझा ।
आंसुओं का क्या रोकना, गम भी न कर सकता साझा ।
झर-झर आंसू बहा रहा हूँ, बिस्तर पर पड़े-पड़े ।
बन गई थी वो दोस्त मेरे बाजार-ए-शाम खड़े-खड़े ।
यो क्यों पूछते हो तुम, पल-पल में हाल मेरा ।
जिसका न कोई हमसफर है, कैसे कटेगी शाम-सबेरा ।
सफर के हमसफर लाने, फिर से फेक रहा हूँ डोरा ।
अपनी किस्मत रूठी रहे या हाथ में आये कटोरा ।
लेकर कटोरा पार्क में बेचूँगा चना-चबेने ।
बन गई थी वो दोस्त मेरे बाजार-ए-शाम खड़े-खड़े ।
                               जेपी हंस

07 December, 2017

भातृत्व प्रेम


        सुमेर ने पिता जी से कहा, पापा, ये क्या हो रहा है?’ यही हर दिन की तरह रगड़ा-झंझट – पिता जी ने झुझलाते हुए कहा । लेकिन, किस बात पर, सुमेर ने बात काटते हुए बोला- पिता जी ने कहा, साड़ियाँ लाये थे श्रुति के गौने के लिए, पर शायद अच्छी नहीं है, इसलिए आसमान सर पर उठाये है दोनो-माँ और बेटी श्रुति सुमेर की सौतेली बहन थी । सुमेर के दो माँ थी । आए दिन उनके बीच बात-बात पर झगड़े होते रहते थे । सुमेर के परिवार में पूरे पौन दर्जन सदस्य थे । कमाने वाला केवल एक ही प्राणी था-सुमेर । खेती थी तो बस पेट भरने के काम में आती थी । सुमेर ने पिता जी से कहा,ठीक है! जाइए... बदलकर दूसरा कपड़ा लेते आइएपिता जी थोड़ा सकपकाते हुए, बेटे पैसे भी तो...उतने ही है....उतने में गौना भी खत्म करना है । श्रुति का विवाह सुमेर ने बड़ी धुम-धाम से करवाया था, लेकिन श्रुति में दिन-प्रति-दिन बढ़ते घमण्ड ने सुमेर को असहज कर दिया था । सुमेर छोटे-बड़े प्राईवेट काम में लगा हुआ था और किसी तरह परिवार का खर्च जुटा रहा था, लेकिन पूरे परिवार को देखभाल करने के लिए सीरियल बड़े भईया की दुल्हनिया से कम नहीं लगा रहता था । दोनों माँ के बीच अनबन और श्रुति को अपनी सौतेली माँ के प्रति व्यवहार से सुमेर और श्रुति के बीच नाराजगी की खाई दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही थी । जब सुमेर से बात असहनीय स्थिति पर पहुँचती तो वह मन मसोस कर रह जाता । नाराजगी को दूर करने के लिए बात का सिलसिला बंद कर दिया था, फिर भी सुमेर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते हुए गौना पर बहुत खर्च कर रहा था । वो भी अपने दोस्तों-यारों से पैसे जुटाकर, क्योंकि गौना के दिन एकाएक रखे गए थे । वह जानता था कि पिता जी आखिर गौना का खर्च कैसे उठा पायेगे? सुमेर ने गौने के उस साड़ियों को बदलने के लिए पिता जी को कुछ पैसे दे दिए । अगले दिन पिता जी बाजार से जाकर उससे अच्छी साड़ियाँ लाये तब जाकर श्रुति का मन भरा । फिर भी गौने के सामान में कुछ कमियाँ निकालती रहती था । श्रुति का गौना किसी तरह शान्तिपूर्वक सम्पन्न हुआ और वर अपने ससुराल चली गई । पर ससुराल में भी श्रुति की जी नहीं भर रहा था, क्योंकि वहाँ मैके की तरहे घुमने-फिरने की आजादी नहीं थी । एक दिन माँ को फोन किया, माँ यहाँ मन नहीं लगता है, बहुत काम करना पड़ता है । माँ बोली,बेटी जैसी भी हो, नमक-रोटी खाकर रहना पर यहाँ आने के बारे में मत सोचना। लग रहा है जैसे मैके में युद्ध चल रही हो । श्रुति को मैके में बहुत आराम थी, एकलौती जो थी, इसके कारण सारे काम-काज माँ ही कर देती थी । अब आराम का ससुराल में मजा निकल रहा था । दिन बितता गया, समय बितते गए । श्रुति अब माँ बनने वाली थी । श्रुति के ससुर और पति खेती-बाड़ी और घर का कामकाज संभालते थे । श्रुति भी घर का कार्य संभालती थी । सुमेर की जिंदगी भी आराम से गुजर रही थी । उसे अपने कार्य से संतोष मिल रहा था । उसे इस कार्य के लिए कभी एक शहर से दूसरे शहर में भी जाना पड़ता था । सावन का महिना चल रहा था । कुछ ही दिनों में रक्षाबंधन आने वाला था, पर दोनों भाई-बहन के बीच बात-चित का दौर खत्म हो गया था ।

      श्रुति अब अपने बच्चे को जन्म देने वाली थी । वह पैसे की कमी के कारण सरकारी अस्पताल में भर्ती थी । सरकारी अस्पताल की हालत इन दिनों खराब चल रही थी, अधिकांश डॉक्टर किसी न किसी कारण गायब रहते थे । श्रुति का दर्द बढ़ता जा रहा था । उसके पति के पास इतना पैसा नहीं था कि उसे नजदिक के किसी अच्छे प्राईवेट अस्पताल में ले जाये । सुमेर
अपने काम से उसी शहर में आया हुआ था । श्रुति के हालत पल-पल खराब होती जा रही थी, अस्पताल के सभी स्टॉफ बेचैन थे, कही फिर न बदनामी झेलना पड़े । अस्पताल को आये दिन अनगिनत मौते प्रसव पीड़ा के कारण होती रहती थी, लेकिन अस्पताल के डॉक्टर सुविधाओं की कमी का कारण कुछ में करने में असमर्थ थे । अस्पताल के बाहर भी श्रुति के खराब हालात के खबरे फैलने लगी थी । तभी कही से घुमता हुआ सुमेर आया । उसे बात समझते देर न लगी, फिर क्या था, भाई की ममता ही अलग होती है । आखिर एक समय श्रुति ने भी तो सुमेर को राखी बाँधकर जीवन की रक्षा की भीख माँगी थी, पर पारिवारिक कारणों से बात बंद थी । सुमेर ने जल्द ही एटीएम से पैसे निकालकर श्रुति के पति को दिया और साथ मिलकर अच्छे प्राईवेट अस्पताल में भर्ति कराया । जहाँ श्रुति ने एक नन्हे बालक को जन्म दिया । कुछ देर बात सुमेर श्रुति से मुलाकात करने गया । जहाँ श्रुति अपनी गलती का अहसास कर फुट-फुट कर रोने लगी, वही, सुमेर ने ढ़ाढस बाँधते हुए नयी जिंदगी की दिलासा दिया । नन्हा बालक भी एक टक से अपने मामा को इस तरह निहार रहा था, मानो उसकी बहन से ज्यादा उसे ही जाना पहचाना हो । आज भातृत्व-प्रेम के कारण एक बहन की जान बची, अन्यथा सरकारी अस्पताल में बदनामी में एक की बढ़ोतरी दर्ज होती । तीसरे दिन रक्षाबंधन का पर्व था । श्रुति ने राखी मंगवाकर भाई को भी लम्बी उम्र की कामना करते हुए राखी बाँधी ।

11 November, 2017

सदाबहार-3

जिस हाल में हूँ उस हाल में रहने दो।
हाथो मे चाकू न दो कलम भी रहने दो।
सताया हूँ इस कदर उसके दिल का।
जितना बहना है आँसू बहने दो।
                  जेपी हंस

सदाबहार-2

कभी रेत पर लिखी थी हम दोनों की जिंदगानी।
आँधियाँ आई, तूफान आया मिट गयी निशानी।
मुलाकातों को दौर चलता है चलता भी रहेगा।
बस होंठो में मुस्कान और लेकर आंखो में पानी।
                            जेपी हंस

10 November, 2017

सदाबहार-1

स्मार्टफोन की इस दुनिया में,
कैसा कैसा भूकंप आता है।
घर परिवार में अगर मचे भूकंप तो,
मोदी से पहले ट्रम्प को पता चल जाता है।
                                    जेपी हंस