28 July, 2021
चांद की ओर मत देखना
29 June, 2021
दीपिका कुमारी- 27 साल में 54 देशों को धूल चटाने वाली भारतीय महिला.
कहा जाता है कि
“कोई भी देश यश के शिखर पर तब तक नहीं पहुँच सकता जब तक उसकी महिलाएं कंधे से कन्धा मिलाकर चले.”
आज महिला हर क्षेत्र में खुद को साबित कर रही हैं एवं पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है. वे परिवार, समाज और देश की तरक्की में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, लेकिन फिर भी कई क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं मिल रहा है. भारतीय समाज पितृसतात्मक होने के कारण आज भी भ्रूण हत्या, महिलाओं के साथ शोषण, अत्याचार, अन्याय और बलात्कार के मामले हो रहे हैं. इस विषय पर पुरुषों को जागरूक होने की जरूरत है.
photo credit: gettyimages
झारखंड की रहने वाली दीपिका कुमारी ने 27 जून, 2021 को 27 वर्ष की उम्र में पेरिस में चल रहे विश्वकप तीरंदाजी में महिलाओं की व्यक्तिगत, टीम और मिश्रित युगल में तीन गोल्ड मेडल हासिल किया साथ ही विश्व की नम्बर वन महिला तीरंदाज बनने वाली पहली भारतीय महिला बनी. इस पर दीपिका कुमारी ने कहा-
“यह पहली बार है, जब मैंने वर्ल्ड कप में तीन गोल्ड मेडल जीते हैं. मैं बहुत खुश हूँ लेकिन साथ ही मुझे लगातार अच्छा प्रदर्शन करना है क्योंकि आने वाले समय में कुछ बहुत महत्वपूर्ण प्रतियोगिताएं होने जा रही है.”
इससे पहले महिला क्रिकेटरों ने विश्वकप महिला क्रिकेट में वर्ल्ड कप जीतकर देश का नाम रौशन किया था.
इस विश्वकप तीरंदाजी प्रतियोगिता में 55 देश शामिल हुए थे. तीरंदाजी प्रतियोगिता में दीपिका कुमारी के साथ झारखंड की अंकिता दास और कोमोलिका बारी भी शामिल हुई थी. दीपिका इससे पहले मात्र 18 साल की उम्र में वर्ल्ड नम्बर वन खिलाड़ी बन चुकी है. अब तक विश्व कप प्रतियोगिता में 9 गोल्ड मेडल, 12 सिल्वर मेडल और 7 ब्रॉन्ज हासिल कर चुकी है साथ ही भारत की ओर से तीरंदाजी प्रतियोगिता में जाने वाली अकेली महिला है.
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झारखंड के बेहद गरीब पिछड़े समाज में जन्म लेने वाली 27 वर्षीय दीपिका कुमारी ने पिछले 14 सालों में खेल का लम्बा सफर तय कर इस मुकाम पर पहुँची है. दीपिका के पिता शिवनारायण महतो एक ऑटो-रिक्शा ड्राईवर और माँ गीता महतो एक मेडिकल कॉलेज में ग्रुप-डी कर्मचारी है. ओलंपिक महासंघ द्वारा बनाये गये एक डॉक्मेन्ट्री में दीपिका बताती है कि उनका जन्म एक चलते हुए ऑटो रिक्शा में हुआ था क्योंकि उनकी माँ अस्पताल नहीं पहुँच पाई थी. दीपिका की शादी पिछले साल 30 जून को टाटा आर्चरी अकेडमी में उनके साथ तीरंदाज सीखने वाले अतनु दास के साथ हुआ था.
आज इस भारतीय पितृसतात्मक समाज में पुत्र की चाहत में भ्रूण हत्या कर न जाने कितने दीपिका कुमारी और मिताली राज जैसे विश्व की उच्च प्रतियोगिता के शिखर पर पहुँचने वाली महान महिलाओं को गर्भ में हत्या की दी जाती है. आज भी महिलाओं को घर से दूर पढ़ने जाने की इजाजत नहीं दी जाती है. अगर दीपिका कुमारी को घर से 200 किलोमीटर दूर तीरंदाजी सिखने नहीं जाने दि जाती तो क्या परिवार, समाज और देश का नाम रौशन कर पाती?
इससे पहले भी भारतीय राजनीति में सफल महिलाओं की सूची में सुश्री मायावती, श्रीमति राबड़ी देवी, सुश्री ममता बनर्जी, सुश्री जयललीता और श्रीमती सुषमा स्वराज का नाम शामिल है.
18 June, 2021
"जाती" और "जाति" की 'ऐसी की तैसी'
06 June, 2021
हादसा
02 June, 2021
दो जून की रोटी
22 May, 2021
जनता हुआ निठल्ला
जनता हुआ निठल्ला ।
एक-साथ सब अंधभक्त बोले,
सबकुछ बल्ले-बल्ले ।
साहब, तुम्हारे राम राज में,
जनता हुआ निठल्ले ।
खत्म हुआ सरकारी नौकरी,
खत्म सरकारी कम्पनी,
युवा सब बेहाल हुए,
भाग्य को कोसे अपनी ।
पग-पग पर पूँजीपति खेले,
लूट का खेल खुल्ला ।
साहब तुम्हारे राम राज में,
जनता हुआ निठल्ला ।
निजीकरण से खत्म हुये नौकरियाँ,
सरकारीकरण मांगे हर पल ।
रेलवे, एयरपोर्ट सब बेच दिये,
बचा केवल नदी, समुदर के जल ।
महामारी में भी चुनाव कराते,
वाह रे ‘सत्तालोभी पिल्ला’ ।
साहब तुम्हारे राम राज में,
जनता हुआ निठल्ला ।
साधु-संत-सी डाढ़ी बढ़ाकर,
फेकते जुमला भाषण ।
घड़ियाली आंसु बहाकर,
जनता को कराते ढ़ोगासन ।
काश लोग अब भी कहते
‘मेरा साहब नल्ला’ ।
साहब तुम्हारे राम राज में,
जनता हुआ निठल्ला ।
निठल्ला- जिसके पास कोई काम-धंधा न हो; बेरोज़गार,
नल्ला- कुछ भी न करने वाला,
लेखक- जेपी हंस
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19 May, 2021
पारुल खख्खर - शववाहिनी गंगा की कवयित्री
पारुल खख्खर एक गुजराती लेखिका है । वह न लिबरल है, न वामी, न ही वह विरोध,
प्रतिरोध, असहमति की कवि भी कभी रही । असल में तो वे हिन्दुत्वी जमात की लाडली रही
हैं । आर.एस.एस के गुजरात मुखपत्र से जुडे ‘राजनीतिक इतिहासकार’ मोदी
द्वारा पदमश्री से सम्मानित विष्णु पांड्या पारुल को गुजराती काव्य साहित्य की
आगामी नायिका तक बता चुके थें ।
कोरोना महामारी के इस दौर में
जहाँ सरकार द्वारा मरीजों को समय पर ऑक्सीजन न मिलना, हॉस्पिटल में बेड न मिलना,
जब हाउसफुल श्मशानों और लकड़ियों के घोर अभाव के चलते उन्हे गंगा में खुले बहा
देना, हाथ-भर जमीन में गड्ढा खोदकर जैसे-तैसे दफनाने और गंगा जैसी पावन नदियों में
लाश बहाने पर लोग मजबूर हो रहे हैं ।
महामारी के इस दौर में इस महान विभीषिका को सरकार और नेताओं द्वारा
प्रायोजित बता रहे हैं, वहीं न्यायपालिका तक इसे ‘सरकारी नरसंहार’ करार देती है. ऐसे में गुजराती
कवयित्री की “शववाहिनी गंगा” कविता मौजूदा
कोरोना काल में लाशों को गंगा में दफनाने व बहाने की सरकारी नाकामी को उजागर करती
है ।
संघी आई.टी. सेल को रामराज में
मेरा साहब नंगा और रंगा-बिल्ला की उपमा कुछ ज्यादा ही मिर्ची लगने लगी है और ये सब
ठीक उसी भाषा में उसी निर्लज्जता के साथ इन कवयित्री के पीछे पड़ गए हैं जैसे वे
जेएनयू और जामिया की लड़कियों के पीछे पड़ते हैं । सिर्फ 14 पंक्तियों की इस कविता
के लिए मात्र 48 घंटों में 28 हजार गालियां- अपशब्दों से भरी टिप्पणी हासिल की है
। इसका कसूर सिर्फ इतना है कि गंगा में बहती लाशों को देखकर वे विचलित हो गई और
सरकारी नाकामियों को उजागर करती कविता लिख डाली । इस कविता को असमी, हिन्दी, तमिल,
मलयालम, भोजपुरी, अंग्रेजी, बंगाली भाषाओं में अनुवाद हो गया ।