मेरे गाँव-मुहल्लों में जो
दिवाना है ।
वहीं पर बुढ़े-बुजुर्गों
का भी आशियाना है ।
मैंने गॉव-मुहल्लों के चीख
से जाना ।
ये समाज कई वर्ष पुराना है
।
ऐसे संस्कारों से जिंदगी
नहीं चलती ।
जिसका लक्ष्य बुजुर्गों को
सताना है ।
दिल दुखाते है सब एक
दूसरें को मगर
मुश्किल से हमें ही तो
बचाना है ।
बुजुर्गों की आहट से डरती
थी जिंदगी ।
आज उन्हें अपना घर विराना
है ।
लड़ते है बाप-बेटे एक
दूसरे से ।
ये हरकत बहुत बचकाना है ।
दुख-दर्द की आँधियाँ बहेगी
।
फिर भी हरपल हमें
मुस्कुराना है ।
आँधी, बारिश या तुफान भी
आये ।
हमें तो बस चलते ही जाना
है ।
आज कु-संस्कारों से चलते
पसरा है सन्नाटा ।
इस सन्नाटों से एक दास्तां
बनाना है ।
चमगादड़ों की फौज से कहीं
है बेहतर ।
आँधियों में एक दीप जलाना
है ।
पढ़ों साहित्य, अपनाओं
अपनी संस्कृति ।
फिर समाज में अच्छे
संस्कार लाना है ।
मेरे गाँव-मुहल्लों में जो
दिवाना है ।
वहीं पर बुढ़े-बुजुर्गों
का भी आशियाना है ।
जे.पी. हंस
जे.पी. हंस
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