04 December, 2014

संस्कार

मेरे गाँव-मुहल्लों में जो दिवाना है ।
वहीं पर बुढ़े-बुजुर्गों का भी आशियाना है ।
मैंने गॉव-मुहल्लों के चीख से जाना ।
ये समाज कई वर्ष पुराना है ।
ऐसे संस्कारों से जिंदगी नहीं चलती ।
जिसका लक्ष्य बुजुर्गों को सताना है ।
दिल दुखाते है सब एक दूसरें को मगर
मुश्किल से हमें ही तो बचाना है ।
बुजुर्गों की आहट से डरती थी जिंदगी ।
आज उन्हें अपना घर विराना है ।
लड़ते है बाप-बेटे एक दूसरे से ।
ये हरकत बहुत बचकाना है ।
दुख-दर्द की आँधियाँ बहेगी ।
फिर भी हरपल हमें मुस्कुराना है ।
आँधी, बारिश या तुफान भी आये ।
हमें तो बस चलते ही जाना है ।
आज कु-संस्कारों से चलते पसरा है सन्नाटा ।
इस सन्नाटों से एक दास्तां बनाना है ।
चमगादड़ों की फौज से कहीं है बेहतर ।
आँधियों में एक दीप जलाना है ।
पढ़ों साहित्य, अपनाओं अपनी संस्कृति ।
फिर समाज में अच्छे संस्कार लाना है ।
मेरे गाँव-मुहल्लों में जो दिवाना है ।
वहीं पर बुढ़े-बुजुर्गों का भी आशियाना है ।
                             जे.पी. हंस





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