बिहार
के प्रसिद्ध गवइया श्री भिखारी ठाकुर का नाम शायद कौन नहीं जानता ? यह गवइया के साथ-साथ प्रसिद्ध नाटककार, गीतकार, कवि, भाषासेवी, लोक
कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण के संदेशवाहक, नारी विमर्श एवं दलित विमर्श के उद्घोषक,
लोकगीत एवं भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे । इनका जन्म 18 दिसम्बर, 1887 ई. को बिहार
के सारण जिले के कुतुबपुर (दियारा) गॉव में एक नाई परिवार में हुआ था । उनके पिता
जी का नाम दल सिंगार ठाकुर और माता जी का नाम शिवकली देवी था । वे एक गरीब परिवार
से थे । बचपन में ही जीविकोपार्जन के लिए गॉव छोड़कर खड़गपुर चले गए । वहाँ
उन्होंने काफी रूपया-पैसा कमाया, किन्तु वे अपने काम से संतुष्ट नहीं रहते थे ।
रामलीला में उनका मन लग गया था, इसके चलते ही वे अपने गॉव आकर एक नृत्य मण्डली
बनाया और रामलीला खेलने लगे । इसके साथ ही वे गाना-गाते एवं सामाजिक कार्यों से
जुड़े । उनकी पढ़ाई-लिखाई 30 वर्ष की उम्र में हुआ, इससे पहले वे अपने पुश्तैनी
काम नाई का कार्य करते थे । इसके साथ ही उन्होंने नाटक, गीत और पुस्तकें लिखना भी
आरम्भ किया । इनके पुस्तके की भाषा बहुत सरल होती थी, जिसके चलते ही बहुत लोग उनके
तरफ आकृष्ट हुए । उनके द्वारा लिखे गए नाटक है- विदेशिया, भाई-विरोध, पुत्रवध,
विधवा-विलाप, गवर-घिचोर, बेटि बेचवा, बिरहा-बहार, राधेश्याम-विहार, कलियुग-प्रेम ।
इसने भोजपुरी भाषा को जन-जन तक पहुँचाने में अहम योगदान दिया, जिसके कारण इन्हें
भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा जाता है । इनका निर्धन 10 जुलाई सन् 1971 को हुआ था । यह
हिन्दी के लिए दुर्भाग्य की बात है कि इस महान लोक कलाकार को भोजपुरी का शेक्सपीयर
तो कहती है पर इनको साहित्य में पहुच से दूर रखा गया है ।
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