20 April, 2020

आदमी या आदमखोर

                                                                  

आज हमें यह सोचने को विवश होना पड़ रहा है कि हम किस युग में जी रहे हैं, एक तरफ कोरोना जैसे गंभीर महामारी से घिरा इंसान अपनी जिंदगी बचाने के लिए घर में कैद रहकर अपने रिश्ते-नातों/सगे-संबंधियों से दूरी बनाने को मोहताज हैं, वहीं दूसरी ओर भीड़ तंत्र घरों से बाहर निकलकर खुशहाल इंसानी जिंदगी को मौत के मुँह ढकेल रहा.

      परिवर्तन संसार का नियम है. जंगलों में रहने वाला बंदर आज घरों में रहने वाला इंसान बन गया है. ये कब हुआ बहुत समय गुजरा.

      लेकिन क्या आज इंसान किसी रूप में परिवर्तन ले रहा है, तो कहूँगा, हाँ, बिल्कुल यह इंसान  से हैवान, मानव से दानव और आदमी से आदमखोर में प्रवेश ले रहा है यह परिवर्तन तो इंसानी आंखों के सामने हो रहा है

      पर, इसके परिवर्तन के लिए दोषी कौन ?

      कुछ अनैतिक रूप से पाने के लिए इंसानों द्वारा फैलाया जाने वाला भ्रम, अफवाह, भड़काऊ युक्त बयान, पोस्ट, कॉमेंन्ट्स या दकियानुसी सोच

      यह सोचना पड़ेगा कि वर्तमान में जनमानस पर जो दूषित विचार फैला रहा हैं, वो कौन लोग है, जिन्हें इस दूषित विचार से ही केवल सुखद अहसास महसूस होता है ?

      साथ ही मिडिया चैनलो मे बैठकर धर्म और जाति के मुद्दे पर भड़काने वाले महानुभाव...जिन्हें किसी मुकदमे में नाम आते ही बचाने के लिए आने वाले परजीवी जीव...

      राजनितिक पार्टियों के आई.टी सेल, जो फर्जी अकाउंट बनाकर विरोधियों के सात पुश्तों को माँ-बहन की श्लोकोच्चारण और मंगल गीत गान करने से परहेज नहीं करते या वो जिन्हें इंसानी सेल से ज्यादा साइबर सेल पर ज्यादा विश्वास रहता है.

      इन सबके बीच यह भी सोचना पड़ेगा कि किस जगह पर असहमति के अधिकार बचे है या हर मामले में किसी से सहमत ही हुआ जा सकता है...

      क्या असहमत होने वाले ही सोशल मीडिया के बाद समाज में भीड़-तंत्र का हिस्सा बन रहे हैं ?

                हालात तो इतना तक बन रहा है कि कोई भी पोस्ट लिखने पर असहमति वाले अपनी सात पुश्तों के संस्कार को तिलांजली दे नये संस्कार को जन्म दे रहा...

      क्या नये संस्कार ही आदम युग का हिस्सा बन रहा...

      ये भी सोचना पड़ेगा कि आदमी को आदमखोर बनने की प्रवृत्ति कब से शुरू हुई...

          अंत में मशहूर शायर राहत इंदौरी के शब्दों में,

                   अगर खिलाफ हैं होने दो जान थोड़ी है

                    ये सब धुआं है कोई आसमान थोड़ी है

                                     लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में,

                                       यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है

                                                            -जेपी हंस

Note: फोटो गूगल से संभार.

19 April, 2020

बहुत याद आती है तेरी


 

   डियर ऑफिस बहुत याद आती है तेरी

वो ऑफिस पहुँचकर

सबको दुआ-सलाम करना,

बगल में लगे,

माँ सरस्वती को चरण स्पर्श करना,

आई.टी.बी.ए पर वर्क करना,

कितना अच्छा लगता था न ।

 

पानी की बोतल उठाकर,

गटक-गटक कर पीना,

कभी कैंटीन निकल जाना,

चाय ऑफि में रहते हुए भी,

बाहर जाकर चाय पीना,

कितना अच्छा लगता था न ।

 

फिर दोस्तों के साथ लंच

करते-करते

गप्पे करना

काम के लिए,

कभी उस साहब के पास,

तो कभी इस साहब के

 पास जाना ।

कितना अच्छा लगता था न ।

-    जेपी हंस


हाँ, मैं मजदूर हूँ न !



भारतीय मजदूर,

सदियों से शोषित,

वर्षों से पीड़ित रहने वाला,

कभी जमींदारों के गुलाम,

कभी पूजीपतियों के गुलाम,

गुलामी ही जिसका नसीब

वहीं जंजीर हूँ न !

हाँ, मैं मजदूर हूँ न !

 

बंजर खेतों को उपजाऊं बनाकर,

हरे-भरे फसल लहराकर,

मोटे-मोटे अन्न उपजाने वाला,

मालिकों का पेट भरकर,

भुखे पेट सोने वाला

वहीं बदनसीब

भूखा पेट सुलाने,

परिवार को आतुर हूँ न !

हाँ, मैं मजदूर हूँ न !

 

 

वोटो के समय,

नोटों के गड्डियों से

तौला जाने वाला,

जीतने के बाद,

पर्वत सी,

झूठी वादे सुनकर

अपने रहमोकरम पर रहकर,

जीने वाला,

हादसे का

 कब्रिस्तान हूँ न !

हाँ, मैं मजदूर हूँ न !

 

फैक्ट्री मालिकों के

फिर से गुलाम बनकर,

बात-बात में भठियों में

फेकने की गालियां

सहने वाला,

पगार काटने की धमकी,

सहते-सहते

पत्थर दिल बनने वाला,

वाला इंसान हूँ न !

हाँ, मैं मजदूर हूँ न !

 

 

तपती धूप में

पत्थर तोड़ने वाला,

सर्द दिनों में कम कपड़ों

में रात-दिन एक कर

कम्पनी का उत्पादन

बढ़ाने वाला,

मेहनतकस काम

के पक्के उसूल

हूँ न!

हाँ, मैं मजदूर हूँ न !

 

पापा पेट को भरने,

घर-गाँव-दुआर छोड़कर

शहर आने वाला

वक्त-बे-वक्त अपने

रहमोकरम पर रहकर,

झुठे ढाढस दिलाये जाने वाला

 बदस्तूर हूँ न !

हाँ, मैं मजदूर हूँ न !

        -जेपी हंस

 

 


05 April, 2020

हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।



 

हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।

जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।

वक्त भी उसकी रहमत करेगी जो खुद डरे,

वरना कायामत को आये कोरोना को पूरा मानता हूँ ।

 

हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।

जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।

 

 

मैं ईश्वर को मानता हूँ, तुम अल्लाह को मानते हो ।

बढ़े वैसे कदम जहाँ, हर शख्स को जानता हूँ ।

फिर छलके न आँसू किसी आफत पर

वैसे आँसु को अधुरा मानता हूँ ।

 

हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।

जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।

 

मैं मंदिर में फँसा हूँ, वे मस्जिद में छिपे हैं ।

हजारों सालों से यही दकियानुसी दलदल में धसे हैं ।

चले करने जिस करामात को, हर करामात जानता हूँ ।

करे ऐसे करामात जो उसे बेहुदा मानता हूँ ।

 

हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।

जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।

 

कुछ धर्म का नशा पिलाते हैं, कुछ मर्म का नशा पीते हैं ।

पिलाकर नशा वे बड़े खुशगहमी में जीते हैं ।

उसके हर एक खुशगहमी को मैं कुराफात मानता हूँ ।

ऐसे करने वाले हर शख्स को जानता हूँ ।

 

हर उस जमात को मैं बुरा मानता हूँ ।

जो कर न सके खुद की हिफाजत, अधुरा मानता हूँ ।

                        -जेपी हंस

 

 

 

 

 

 


26 March, 2020

कैद में मौज

यू ही खाली नहीं है दूर-दूर की सड़कें,
कोरोना का खौफ सब के जेहन में है।
कल जो एक-दूसरे को कत्ल को उतारू थे,
वे भी कोरोना के डर से घर में कैद है।

यू तो नहीं देखा ऐसा बंदी किसी जमाने में।
शहर-दर-शहर बंद है इंसान को बचाने में।
तकलीफ होती है घर पर रहकर बर्तन मांजने में,
टूटने दो लॉकडाउन, देखना, कितनी भीड़ जुटती है पउआ के दुकानों पे।

आशिको के जख्मों का हिसाब कौन करेगा।
निठल्ला बैठा हूँ घर पे हाल-ए-बया कौन करेगा।
इस लॉकडाउन में रिचार्ज के दुकान भी बंद है,
होती थी दिन भर बातें बिन-बात के कौन मरेगा।
                                -जेपी हंस

07 March, 2020

इतनी आसानी से तो मै तुझे भूला भी नहीं सकता।



खो भी नहीं सकता तुझे और पा भी नहीं सकता।
किस कशमकश में उलझा हूँ तुझे बता भी नहीं सकता।
छुपा भी नहीं सकता और बता भी नहीं सकता।
है कितना दर्द सीने में किसी को बता भी नहीं सकता।
हर मोड़ पर टकराएगी तुझसे यादें मेरी
इतनी आसानी से तो मै तुझे भूला भी नहीं सकता।

बड़ी शिद्दत से चाहा था मैंने तुझे,
इतनी आसानी से तो भूला नहीं सकता।
चाहे तेरा प्यार झूठा था,
पर मेरे सच्चे प्यार का तू कर्ज कभी चुका भी नहीं सकता।
तेरे दिल में बोझ बनकर रहूंगा।
तेरे याद में हर रोज बनकर रहूंगी।
जिंदगी से तो निकाल दिया मुझे पर दिल से कभी निकाल नहीं पाओगे।
जब दर-बदर तुझे भी धोखे मिलेंगे
तो तू खुद भी संभाल भी नहीं पाएगी।
जैसे मुझे चुप कर दिया करता था,
अब तू मेरे तरह किसी और को समझा भी नहीं सकता
इतनी आसानी से तो मैं तुझे भुला नहीं सकता।

चाहे कुछ भी कह देते है
पर दिल से आज भी तेरे खुशियों की दुआ मांगते है।
अब तो हम अपना हाल-ए-दिल किसी को सुना भी नहीं सकता।
पर इतनी आसानी से तो मैं तुझे भुला भी नहीं सकता। 
                                        -गूंज चांद
   

26 November, 2019

नई सरकार (व्यंग्य)









कल रात को मेरे नाक में दो मच्छर घुसने का प्रयास कर रहा था। मैंने उससे पूछा,"ये क्या बेहूदगी है, जो आप सीधे नाक में दम कर रहे हो, मेरे पी.ए से तो पूछ कर आते"
मच्छर ने कहा," हमें किसी ई.ए, पी.ए से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती, हम साहेब के आदमी है, ओ भी बड़े साहब के।" मैं भी ठहरा संस्कारी, बोला ठीक है, आ ही गए हो तो बैठ जाओ। बताओ क्या बात है, जो इतनी रात को घर आये? उसने बोला, "आपका समर्थन चाहिए सरकार बनाने में।
मैं झिझका तभी बीच में बोल पड़ा, 50 मिलेंगे।
हमने कहा," यह 50 रुपया क्या है?  मोटा मच्छर अकड़ दिखाते हुए कहा, " अबे नया है क्या? नहीं जानता है, 50 रुपये नहीं, 50 करोड़।  अगर बाप या परिवार का कोई जेल में हो तो तुरन्त पैरोल और सरकार बनने के बाद बेल की गारंटी।  यदि कोई घोटाले में लिप्त हो, चाहे कितना भी बड़ा घोटाला हो तब पैसे की जगह घोटाला की जांच रोकने और क्लीनचिट की गारंटी साथ ही मंत्री पद भी। अबकी मच्छर कुछ बोला नहीं, बल्कि अपना रेट-कार्ड मुझे दिया। यह रखिये। रेट-कार्ड भगवा कलर का था। जिसमें ऊपर की सभी बातें साफ-साफ और स्पष्ट शब्दों में लिखा था। तभी मेरे मन में सवाल आया, कुछ बोलने ही वाला ही था, तो मच्छर बोला, पूछिये जो पूछना है,  समय ज्यादा नहीं है मेरे पास और किसी और से बात करने की जरूरत नहीं। हमें ही पूरा सेटिंग-गेटिंग का जिम्मा है।
हमने कहा भाई साहेब ये जांच का मामला तो जांच एजेंसी देखती है, ओ सरकारी मुलाजिम होता है, तभी बीच में टोकते हुए कहा, फिक्र नॉट, हमारा सब जगह सेटिंग है, बड़े साहब जो है।

-मैंने बातो में उलझाते हुए सुबह होने तक इंतजार करने को कहा । साथ ही पार्टी प्रमुख जो कहेंगे, वही न! इतने साल से पार्टी की सेवा जो कर रहा हूं।
- वैसे भी आप किस पार्टी के समर्थन के बारे में कह रहे है, आपने बताया नहीं, मैंने पूछा?
मच्छर तपाक से बोल पड़ा, "मेवा मिली क्या आज-तक? आज मेवा खाने का मौका है। किस पार्टी का समर्थन देना है ओ तो शपथ के समय पता चलेगा। अभी केवल सादा कागज पर साइन कीजिये और पार्टी से पूछकर ज्यादा हरिश्चन्द्र बनने की जरूरत नहीं है।
-मैंने दोहराया, फिर सिद्धान्त का क्या होगा?
सिद्धान्त, सिद्धान्त क्या होता है? पार्टी और नेता का कोई सिद्धान्त होता है क्या! सिद्धान्त यही की बहला-फुसलाकर कुर्सी हासिल करो। वैसे भी सिद्धान्त जाए बैगन के खेत में, हमें केवल सरकार बनाना है। ओ भी रातो-रात, नहीं तो सबेरे सब गुड़-गोबर हो जाएगा।
-मैंने अपनी बात फिर रखा, इतनी रात को क्या राज्यपाल जगे होंगे, सबेरे तो होने दीजिये, वैसे भी राजभवन का फैक्स अक्सर खराब ही होते है। इस बार छोटा मच्छर फुदका कहा, "नहीं, सब जुगाड़ फिट है।"

-मैंने सोचा अब बिना बिहारी दिमाग लगाए इससे छुटकारा नहीं।
मैंने चमन की माई को जोर से आवाज लगाई, चमन की माई, तनी तेलवा पिअलका लाठिया लाओ तो, जरा फिर से तेल पिआ के...चमन की माई भी बड़ी भोली है जल्दी ही तेल नहीं मिला तो घीउ पिलाकर लाठी लाई सोची कोई कुत्ता होगा इसी के लिए लठिया मांग रहे है।
यहां लाठी की बात सुनते की दोनों हांफते हुए भागा।

-क्या समझा था, ये गोआ, कर्नाटक और हरियाणा है? ई बिहार हई, हम हई खाँटी अहीर, गोआला के बेटा, यहां दाल नहीं गलीहे। मर जइहें, जेल में सड़ जइहें तइयो समझौता नही।

-सुबह जब उठा तो देखा की बगल की पटरी से अलग रेल पलटी हुई है और दोनों मच्छर भी टकराकर घायल हो गया है। दोनों मच्छरो को ठेले पर लादकर, चुकी बिहार में इतना जल्दी एम्बुलेंस तो मिलता नहीं और हम बिहारी किसी को ऐसे मरते छोड़ नहीं सकते तो ठेले पर लादकर बगल के "तुम्हे मरना होगा" हॉस्पिटल में भर्ती करवा दिया। हमारे यहां हॉस्पिटल में जीने की गारंटी तो नहीं पर मरने का
प्रमाण-पत्र जल्दी मिल जाता है।

-इधर जब अखबार उठाकर पढ़ने लगा तो देखा पहले पन्ने पर लिखा है,"हमारे राष्ट्र में नयी सरकार गठित" पहले कुछ सोचा हमारे देश में तो कब की सरकार बन गयी थी अब फिर... और फिर चश्मा की धूल साफ करते हुए पढ़ा, लिखा था "महाराष्ट में नई सरकार गठित" ओ पढ़ने में गलती से मिस्टेक हो गयी।