17 May, 2021

गुजर रही है जिंदगी



 




🔥गुजर रही है जिंदगी🔥
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गुज़र रही है ज़िंदगी
   ऐसे मुकाम से
अपने भी दूर हो जाते हैं,
   जरा से ज़ुकाम से।

तमाम कायनात में "एक कातिल बीमारी" की हवा हो गई,
वक्त ने कैसा सितम ढ़ाया कि
"दूरियां"ही "दावा" हो गई।

आज सलामत रहे
तो कल की सहर देखेंगे
आज पहरे में रहे
तो कल का पहर देखेंगें।

सांसों के चलने के लिए
कदमों का रुकना जरूरी है,
घरों में बंद रहना दोस्तों
हालात की मजबूरी है।

अब भी न संभले
तो बहुत पछताएंगे,
सूखे पत्तों की तरह
हालात की आंधी में बिखर जाएंगे।

यह जंग मेरी या तेरी नहीं
हम सबकी की है,
इस की जीत या हार भी
हम सब की है।

अपने लिए नहीं
अपनों के लिए जीना है,
यह जुदाई का जहर दोस्तों
घूंट घूंट पीना है।

आज महफूज़ रहे
तो कल मिल के खिलखिलाएंगे,
गले भी मिलेंगे और
हाथ भी मिलाएंगे।

                      ✍️पवन सिंह


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शुक्र कर रब का






🔥शुक्र कर रब का🔥
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शुक्र कर रब का,
तू अपने घर में है,
पूछ उस से जो
अटका सफर में है...
यहां बाप की शक्ल नही देखी
आखरी वक्त में कुछ लोगों ने,
बेटा हॉस्पिटल में और
बाप कब्र में है ...
तेरे घर में राशन है साल भर का,
तू उसका सोच जो दो वक्त की
रोटी के फ़िक्र में है...
तुम्हे किस बात की जल्दी है
गाड़ी में घूमने की,
अब तो सारी कायनात ही सब्र में है...
अभी भी किसी भ्रम में मत रहना मेरे दोस्त
इंसानों की नही सुनती आज कल,
कुदरत अपने सुर में है...


                     ✍️पवन सिंह


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16 May, 2021

कवि मित्र और सरकारी कर्मचारी


 


 

एक बार एक कवि और उसके सरकारी कर्मचारी मित्र की मुलाकात किसी मोड़ पर हुआ । बात-बात में सरकारी कर्मचारी ने कहाँ, मैं बहुत देशभक्त हूँ और विदेशी चीजों का बहिष्कार करता हुँ ।

कवि मित्र- ज्यादा मत फेको, आप और हम कभी विदेशियों के बिना जी नहीं सकतें ।

सरकारी कर्मचारी- कैसे?

कवि मित्र- अच्छा!  बताओं, अभी कहाँ जा रहे हो आप ?

सरकारी कर्मचारी- तपास से! मैं अभी ऑफिस जा रहा हूँ ।

कवि मित्र- ऑफिस तो अंग्रेजी शब्द है तो अंग्रेजों को अभी तक क्यों ढो रहे हो ?

सरकारी कर्मचारी- अच्छा ! तो दफ्तर जा रहा हूँ ।

कवि मित्र- दफ्तर मत जा, यह तो अरबी शब्द है । अब अरब वालों से दोस्ती क्यों ?

 

सरकारी कर्मचारी- मैं कार्यालय जा रहा हूँ, वहाँ जाकर अपने पेशे का कार्य ईमानदारी से करने जा रहा हूँ ।

कवि मित्र- ईमानदारी छोड़. यह तो फारसी शब्द है और अपनी पेशा भी छोड़ दो क्योंकि यह भी फारसी शब्द है ।

सरकारी कर्मचारी- बिदकते हुए शोर मचाते हुए बोला तो क्या जमालगोटा खाकर साहब को बोल दू कि शूल हो गया है?

कवि मित्र- ज्यादा शोर मचा मचाओ, आप शोर भी नहीं मचा सकते, क्योंकि शोर  भी विदेशी (फारसी) शब्द है, जमालगोटा भी नहीं खा सकता । यह भी विदेशी (पश्तो भाषा) का शब्द है  और हाँ! साहब को यह मत बोल देना कि मुझे हैजा हो गया है. क्योंकि हैजा भी विदेशी (अरबी) शब्द है और हाँ ! आप बीमार का बहाना भी नहीं बना सकते, क्योंकि बीमार शब्द भी विदेशी (फारसी) शब्द है ।

अन्त में सरकारी कर्मचारी खिझते हुए- अच्छा ! मैं सरकारी कर्मचारी तो हूँ न!

कवि मित्र- नहीं ! आप सरकारी कर्मचारी भी नहीं हो सकते, क्योंकि सरकारी शब्द भी विदेशी (फारसी) शब्द है ।

सरकारी कर्मचारी गुस्से से- हवालात जा रहा हूँ।

कवि मित्र- नहीं श्रीमान, आप हवालात  नहीं जा सकते, क्योंकि वह भी अरबी शब्द है । वहां जाओंगे तो वहाँ पर डंडे से स्वागत करने वाला बैठा हुआ दरोगा भी विदेशी है, क्योंकि दरोगा तुर्की शब्द है ।

 

सरकारी कर्मचारी निराश होते हुए बोला, "अब क्या करूँ?"

 

कवि मित्र- हमारा देश वसुधैव कुटु्म्बकं में विश्वास रखता है । देश भक्त का मतलब किसी भाषा या इन्सान से भेदभाव करना नहीं होता। हमने समय-समय पर सभी को अपनाया है ।

इसलिए जोर से बोलो पुरा विश्व हमारा परिवार है इस परिवार के सभी सदस्य को उचित सम्मान देगें ।

 

Photo: Thanks to google

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हम भारत के लोग



कोरोना से मरे हुए लोग,

थे हम भारत के लोग,

 

ऑक्सीजन की कमी से मरे

हुये कोरोना के मरीज,

थे हम भारत के लोग,

 

दवा की कमी से मरे

हुये कोरोना के मरीज,

थे हम भारत के लोग,

 

विधुत शवगृह के आगे,

लगी कोरोना से मरे

लोगों की लाशों की कतारें,

थे हम भारत के लोग,

 

श्मशान घाट पर जलते हुए,

कोरोना मरीज की लाशे,

थे हम भारत के लोग,

 

गंगा नदी के बालू में दफनाये

गये कोरोना से मरे लोग,

थे हम भारत के लोग,

 

गंगा नदी में तैरते हुए

कोरोना से मरे लोगों की लाशे,

थे हम भारत के लोग,

 

 

हम भारत के लोगों को

गर्व था,

अभिमान था,

उम्मीद थी,

अपनी सरकार पर,

अपनी सिस्टम पर,

अपनी भगवान पर,

 

वे हमें बचा लेंगे,

जैसे धर्म और संस्कृति की रक्षा

के लिए बना

मठाधिश शंकराचार्य,

आज बचा रहे धर्म और संस्कृति को,

 

मठाधीश बाबा,

राम मंदिर बनाकर

करोड़ों लोगों की रक्षा

कर रहे...

 

हम भारत के लोगों

की रक्षा करना जिनकी ईबादत है,

मृत्यु के मुँह से,

खिच लाना

जिनकी आदत है,

 

 

वे व्यस्त थे,

चुनाव में, कुम्भ में,

क्योंकि पुनः लाशों के

ढेर पर फिर

वहाँ कोई मंदिर

बनाना था।

 

फिर लाशों के

ढेर  पर

कोई मंदिर बनाना था।

 

 फोटोः संभार गूगल.


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कोरोना माता




आखिर कब खत्म होगी,
भांति-भांति और 
नाना प्रकार की
माता गढ़ने की होड़।
जब हर इंसान को
जन्म देने वाली
"माता" होती ही है।
इंसान का जन्म
इंसान ही देती है,
यह सार्वभौम सत्य हैं,
इंसान का जन्म
कोई जानवर, पशुपक्षी
भूखंड या कोई वायरस
जन्म नहीं देता।
तो फिर गाय माता,
भारत माता और
और अब नई माता
"कोरोना माता" को अवतार
लेने की जरूरत क्यों?
किसी चीज की,
पवित्रता अपनी जगह 
हो सकती है लेकिन
दूसरी माता के सत्कार
के चक्कर में,
अपनी जन्म देने वाली
माता को उचित 
सेवा-सत्कार देकर
वृद्धाश्रम जाने से
कब रोकेंगे हम?


फोटोः www.dainikbhaskar.com से संभार..

05 December, 2020

किसानी क्रांति



हम किसानों के लिये सोचते है,
क्यों?
क्योंकि हम किसान के बेटे है।
क्योंकि हम किसानों के खेत में उपजाया हुआ
अन्न खाकर जिंदा है।
हम किसानों के खेत में उपजाया हुआ अन्न की रोटियां तोड़ते हैं।
हमारी सोच भी किसानों के खेतों की भांति उपजाऊ है।
वे लोग ही सोचते हैं, किसानों के खिलाफ,
जो कारपोरेट के पैसे से रोटियां तोड़ते हैं,
जो बालकोनी में दो-चार पौधे उपजा किसान बन रहे हैं,
जिन्हें सत्ता से किसानों के खिलाफ लिखने से रोटियां चलती है,
जो सत्ता के अदम्य चापलूसी करते नहीं अघाते,
जो सत्ता के अंधभक्ति में आकंठ डूबे है।
उन्हें क्या पता आंदोलन व क्रांति क्या चीज होती है?
आखिर पता भी कैसे चलेगा,
सत्ता के मद में चूर रहने वालों को,
सीसे के महलों में रहने वालों को,
बाहरी दुनिया की आवाज कैसे पहुँच सकती है?
जब तक की,
सड़के  वीरान हो,
खामोश हो,
सड़को पर क्रांति और आंदोलन की गूंज सुनाई न दी हो।
                    -जेपी हंस
 

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25 November, 2020

भारतीय समाज और संविधान




     सिंधु घाटी सभ्यता से उपजी भारतीय समाज आर्यों, कुषाण, हुन, अफगान, तुर्क, खिलजी, लोधी, मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक के विदेशी आक्रमण, गुलामी और शोषण का दंश पाँच हजार सालों तक झेलते हुए 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ और इस आजाद भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ साथ ही पाँच हजार साल तक चले सारे मनुवादी विधान को शुन्य घोषित कर दिया.

     भारतीय संविधान को निर्माण करने वाले और कोई नहीं वह व्यक्ति था जिसके समाज को मनुवादी विधान से पाँच हजार सालों से मानसिक रूप से गुलाम बनाकर रखा गया था वो वह वर्ग था जिसका मनुवादी विधान से एक मात्र कार्य दिया गया था मैले का गट्टर साफ करना/मैला साफ करना/मरे हुए पशुओं को उठाना. उन्हें पाँच हजार सालों तक अछूत बनाकर रखा गया था, वो वह वर्ग से था जिसको भारत के धार्मिक ग्रन्थों में शुद्र का दर्जा दिया गया है, जिसकी उत्पति पैर से मानी गई है, जिन्हें शिक्षा, शस्त्र और सम्पति हासिल करने का कोई अधिकार नहीं था लेकिन उस व्यक्ति ने सारे मनुवादी बेड़ियों को तोड़ते हुए 32 डिग्रियाँ हासिल कर ऐसा विधान रच डाला जहाँ सभी वर्गों के लोगों को समानता का अधिकार हो. न कोई राजा होगा और न ही कोई रंग. वह व्यक्ति था विश्व रत्न बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर. इन्होंने लगातार 2 वर्ष 18 दिन तक संविधान निर्माण के लिये कार्य किया और अंततः 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा को संविधान निर्माण कर सौप दिया ।




भारतीय संविधान के 70 साल-  भारतीय संविधान लागु हुए 70 साल हो गए है लेकिन मनुवादी मानसिकता वालों के दिलों पर अभी भी मनुवादी विधान की रट लगी हुई है. वे धर्मरूप अफीम का नशा चखाकर फिर से मानसिक गुलामी की दलदल में धकेलना चाहते हैं. भारतीय समाज विश्व का एक मात्र ऐसा समाज था जो जानवर के मुत्र तो पी सकता था लेकिन इंसानों के हाथ का पानी नहीं पी सकता था, आज भी कही-कही इस तरह की भावना है. भारतीय संविधान बनने से छुआछूत, भेदभाव, बेगारी प्रथा, देवदासी प्रथा, खाप की प्रथा जैसे अनेक धार्मिक कुप्रथाओं पर लगाम लगा हैं. आजादी के बाद भी कही-कही यह स्थिति थी कि जैसे वर्ग विशेष के लोगों के सामने जाने के लिए जुता/चप्पल उतार कर जाना पड़ता था. उनके घर जाने पर साथ में बैठने नहीं दिया जाता था. अपने घर पर भी ऐसे वर्ग विशेष के लोगों के आने पर खाट, कुर्सी छोड़कर उनके सामने गुलामों की तरह हाथ जोड़कर खड़े होना पड़ता था. वर्ग विशेष लोगों के छोटे बच्चों को भी मालिक कहकर पुकारना पड़ता था. वर्ग विशेष के लोगों को बाबू साहब जैसे गुलामी मानसिकता वाले शब्द कहकर पुकारना पड़ता था. वर्ग विशेष के सुदखोरों के सामने अपनी जमीन जायदाद, गहना जेवर या खुद के परिवार के सदस्यों को गिरवी रखकर पैसा लेना पड़ता था. यहाँ तक की चापाकल से पानी पीने के लिए और शादी में घोड़-सवारी के लिए भी कोर्ट की लड़ाई लड़नी पड़ी है.

     आज देश में फिर से मनुवादी तंत्र हावी है और येनकेनप्रकारेन भारतीय संविधान को कमजोर करने में लगे है. उन्हें अपनी धर्म की तो फिक्र है लेकिन किसी इंसान के लिए रोजी-रोटी, मकान और शिक्षा की फिक्र नहीं है. उन्हें दलितों, शोषितों और पीड़ितों की हक की कोई चिंता नहीं है, सभी लोगों को स्वतंत्र रूप से तार्किक शिक्षा की जरूरत है. डॉ भीमराव अम्बेडकर ने कहाँ था- शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करों. इसी मूल मंत्र के सहारे संविधान को मनुवादियों के बलि चढ़ने के बचा सकते हैं.

      जय भारत, जय संविधान

 


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