17 May, 2021
जन आक्रोश
गुजर रही है जिंदगी
शुक्र कर रब का
16 May, 2021
कवि मित्र और सरकारी कर्मचारी
एक बार एक कवि और उसके सरकारी कर्मचारी मित्र की मुलाकात किसी मोड़ पर हुआ । बात-बात में सरकारी कर्मचारी ने कहाँ, “मैं बहुत देशभक्त हूँ और विदेशी चीजों का बहिष्कार करता हुँ ।
कवि मित्र- ज्यादा मत फेको, आप और हम कभी विदेशियों के बिना जी नहीं सकतें ।
सरकारी कर्मचारी- कैसे?
कवि मित्र- अच्छा! बताओं, अभी कहाँ जा रहे हो आप ?
सरकारी कर्मचारी- तपास से! मैं अभी ऑफिस जा रहा हूँ ।
कवि मित्र- ऑफिस तो अंग्रेजी शब्द है तो अंग्रेजों को अभी तक क्यों ढो रहे हो ?
सरकारी कर्मचारी- अच्छा ! तो दफ्तर जा रहा हूँ ।
कवि मित्र- दफ्तर मत जा, यह तो अरबी शब्द है । अब अरब वालों से दोस्ती क्यों ?
सरकारी कर्मचारी- मैं कार्यालय जा रहा हूँ, वहाँ जाकर अपने पेशे का कार्य ईमानदारी से करने जा रहा हूँ ।
कवि मित्र- ईमानदारी छोड़. यह तो फारसी शब्द है और अपनी पेशा भी छोड़ दो क्योंकि यह भी फारसी शब्द है ।
सरकारी कर्मचारी- बिदकते हुए शोर मचाते हुए बोला तो क्या जमालगोटा खाकर साहब को बोल दू कि शूल हो गया है?
कवि मित्र- ज्यादा शोर मचा मचाओ, आप शोर भी नहीं मचा सकते, क्योंकि शोर भी विदेशी (फारसी) शब्द है, जमालगोटा भी नहीं खा सकता । यह भी विदेशी (पश्तो भाषा) का शब्द है और हाँ! साहब को यह मत बोल देना कि मुझे हैजा हो गया है. क्योंकि हैजा भी विदेशी (अरबी) शब्द है और हाँ ! आप बीमार का बहाना भी नहीं बना सकते, क्योंकि बीमार शब्द भी विदेशी (फारसी) शब्द है ।
अन्त में सरकारी कर्मचारी खिझते हुए- अच्छा ! मैं सरकारी कर्मचारी तो हूँ न!
कवि मित्र- नहीं ! आप सरकारी कर्मचारी भी नहीं हो सकते, क्योंकि सरकारी शब्द भी विदेशी (फारसी) शब्द है ।
सरकारी कर्मचारी गुस्से से- हवालात जा रहा हूँ।
कवि मित्र- नहीं श्रीमान, आप हवालात नहीं जा सकते, क्योंकि वह भी अरबी शब्द है । वहां जाओंगे तो वहाँ पर डंडे से स्वागत करने वाला बैठा हुआ दरोगा भी विदेशी है, क्योंकि दरोगा तुर्की शब्द है ।
सरकारी कर्मचारी निराश होते हुए बोला, "अब क्या करूँ?"
कवि मित्र- हमारा देश “वसुधैव कुटु्म्बकं” में विश्वास रखता है । देश भक्त का मतलब किसी भाषा या इन्सान से भेदभाव करना नहीं होता। हमने समय-समय पर सभी को अपनाया है ।
इसलिए जोर से बोलो “पुरा विश्व हमारा परिवार है” इस परिवार के सभी सदस्य को उचित सम्मान देगें ।
हम भारत के लोग
कोरोना से मरे हुए लोग,
थे हम भारत के लोग,
ऑक्सीजन की कमी से मरे
हुये कोरोना के मरीज,
थे हम भारत के लोग,
दवा की कमी से मरे
हुये कोरोना के मरीज,
थे हम भारत के लोग,
विधुत शवगृह के आगे,
लगी कोरोना से मरे
लोगों की लाशों की कतारें,
थे हम भारत के लोग,
श्मशान घाट पर जलते हुए,
कोरोना मरीज की लाशे,
थे हम भारत के लोग,
गंगा नदी के बालू में दफनाये
गये कोरोना से मरे लोग,
थे हम भारत के लोग,
गंगा नदी में तैरते हुए
कोरोना से मरे लोगों की लाशे,
थे हम भारत के लोग,
हम भारत के लोगों को
गर्व था,
अभिमान था,
उम्मीद थी,
अपनी सरकार पर,
अपनी सिस्टम पर,
अपनी भगवान पर,
वे हमें बचा लेंगे,
जैसे धर्म और संस्कृति की रक्षा
के लिए बना
मठाधिश शंकराचार्य,
आज बचा रहे धर्म और संस्कृति को,
मठाधीश बाबा,
राम मंदिर बनाकर
करोड़ों लोगों की रक्षा
कर रहे...
हम भारत के लोगों
की रक्षा करना जिनकी ईबादत है,
मृत्यु के मुँह से,
खिच लाना
जिनकी आदत है,
वे व्यस्त थे,
चुनाव में, कुम्भ में,
क्योंकि पुनः लाशों के
ढेर पर फिर
वहाँ कोई मंदिर
बनाना था।
फिर लाशों के
ढेर पर
कोई मंदिर बनाना था।
फोटोः संभार गूगल.
कोरोना माता
05 December, 2020
किसानी क्रांति
हम किसानों के लिये सोचते है,
क्यों?
क्योंकि हम किसान के बेटे है।
क्योंकि हम किसानों के खेत में उपजाया हुआ
अन्न खाकर जिंदा है।
हम किसानों के खेत में उपजाया हुआ अन्न की रोटियां तोड़ते हैं।
हमारी सोच भी किसानों के खेतों की भांति उपजाऊ है।
वे लोग ही सोचते हैं, किसानों के खिलाफ,
जो कारपोरेट के पैसे से रोटियां तोड़ते हैं,
जो बालकोनी में दो-चार पौधे उपजा किसान बन रहे हैं,
जिन्हें सत्ता से किसानों के खिलाफ लिखने से रोटियां चलती है,
जो सत्ता के अदम्य चापलूसी करते नहीं अघाते,
जो सत्ता के अंधभक्ति में आकंठ डूबे है।
उन्हें क्या पता आंदोलन व क्रांति क्या चीज होती है?
आखिर पता भी कैसे चलेगा,
सत्ता के मद में चूर रहने वालों को,
सीसे के महलों में रहने वालों को,
बाहरी दुनिया की आवाज कैसे पहुँच सकती है?
जब तक की,
सड़के वीरान हो,
खामोश हो,
सड़को पर क्रांति और आंदोलन की गूंज सुनाई न दी हो।
-जेपी हंस
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