22 October, 2015

हमारा सम्पर्क-सूत्र



  



सम्पर्क-सूत्र

नाम- जयप्रकाश नारायण उर्फ जेपी हंस

पता- ग्राम- भूपतिपुर

पोस्ट- ढेलमा

थाना- रामकृष्णा नगर

भाया- लोहिया नगर

पिन कोड- 800020

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ब्लॉग का नाम- जेपी-डायरी

 


07 October, 2015

संपूर्ण क्रांति के सूत्रधार- लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण

                

                                                                      
            “डरो मत अभी मैं जिंदा हूँ के चमत्कारिक नारों की उद्घोषणा करने वाले, भारतवर्ष में गाँधी जी के बाद सबसे लोकप्रिय राजनेता जिसने राज सत्ता से दूर रहकर लोक सत्ता, लोक नीति तथा लोक-चेतना का जीवन पर्यन्त पालन करने वाले, दलगत राजनीति को त्याग, सादगी, समता और सर्वोदय की त्रिवेणी में गोता लगाने वाले युग पुरुष श्री जयप्रकाश नारायण का जन्म उत्तर-प्रदेश और बिहार की सीमाओं का निर्धारण करने वाली पतित पावनी गंगा के कटाव पर स्थित सिताब दियारा गाँव में 11 अक्टूबर, 1902 को हुआ था । सिताब दियारा गाँव बिहार के सारण जिले में स्थित है । उन्होंने सनं 1919 में हाईस्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी से उतीर्ण किया । 1921 में इंटरमीडिएट की परीक्षा में न बैठकर उन्होंने छात्राओं और छात्रों को कॉलेज छोड़ने का आग्रह किया । बाद की पढ़ाई श्री जयप्रकाश नारायण ने विदेश जाकर पूरी की । वह 17 मई, 1922 से सितम्बर 1929 तक अमेरिका में रहे और कुछ न कुछ कार्य करते हुए अपनी पढ़ाई पूरी की । उन्होंने ओहिया विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि हासिल की ।
            विदेश से लौटकर श्री जयप्रकाश नारायण ने जैसे ही अपनी मातृभूमि पर कदम रखा तो उन्हें लगा जैसे दासता की लौह श्रृंखला में आबद्ध भारत माता उन्हें धिक्कार रही हो, सागर की विवश तरंगे जैसे उन्हें ललकार रही हों और ब्रिटानी सल्तनत का दमन-चक्र उनके सामने चुनौती दे रहा था । यह वह समय था, जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था । उनका मानस पटल उद्वेलित हो उठा, भुजाएं फड़कने लगी और उनका यौवन हुंकार भरने लगा तब जवाहर लाल नेहरू के पारिवारिक सदस्य बनकर आनंद भवन, इलाहाबाद में रहने लगे । उन्होंने कांग्रेस को मजबूत बनाने के लिए संगठन पक्ष को अपनी शक्ति प्रदान की । यह काम अंग्रेजों की नजर में संगीन जुर्म था इसलिए उन्हें 1932 ई. में नजरबंद कर दिया गया । स्वाधीनता आंदोलन के तूफानी सफर में अनेकों बार वे कारागार के शिकंजों में जकड़ दिए गए, उन्हें घोर यातनाएं दी गयी. लेकिन उनका सफर नहीं रूका, बल्कि और भी तीव्रतर होता गया । कारागार की कालकोठरियों में उत्पन्न उनकी विप्लवी विचारधारा ने कांग्रेस की नीतियों को नकार दिया और उसी ने मई. 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को जन्म दिया । 11 अप्रैल, 1946 को जब लाहौर जेल से उन्हें मुक्ति मिली तब वे युवकों और क्रांतिकारियों का हृदय सम्राट बन चुके थे ।
            15 अगस्त, 1947 को जब भारत विदेशी दासता की बेड़ियों से आजाद हुआ तब भारतवासी देश के नव-निर्माण के स्वप्निल सागर में गोते लगा रहे थे, तभी अचानक 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गाँधी की निर्मम हत्या हो गया तब वे विचलित हो उठे और गाँधीवाद के प्रवाह में बहते चले गए । युवावस्था में वे मार्क्सवाद और लेनिनवाद के घोर समर्थक थे ।
            जब भारत आजाद हुआ तब कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन श्री जयप्रकाश नारायण ने अपने को सता की राजनीति से दूर रखा । हालांकि उनको भारत का प्रधानमंत्री बनाने की आवाज भी उठ चुकी थी, लेकिन उन्होंने नकार दिया । वे राजनीति से अलग रहकर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति सतत संवेदनशील रहे । इन्हीं लोक सेवा के कारण उन्हें सनं 1965 में मैंग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
            सन् 1974 आते-आते देश के तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के विरुद्ध असंतोष की लहर व्याप्त होने लगी । गुजरात में नौजवानों ने आंदोलन छेड़ दिया । बिहार में भी छात्रों का असंतोष विस्फोटक हो उठा और छात्रों एवं युवाओं ने आंदोलन का नेतृत्व संभालने हेतु श्री जयप्रकाश नारायण से अनुरोध किया । 9 अप्रैल, 1974 को पटना के गाँधी मैदान की एक सभा में छात्रों ने श्री जयप्रकाश नारायण को लोकनायक की उपाधि से विभूषित किया । उन्होंने जब आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार करने की घोषणा की तो संपूर्ण देश का राजनैतिक माहौल गरमा गया । 5 जून, सन् 1974 को पटना के गाँधी मैदान की विशाल ऐतिहासिक सभा में लोकनायक ने संपूर्ण क्रांति की घोषणा की । 25 जून की रात देश में आपातकाल लागू कर दिया गया तथा श्री जयप्रकाश नारायण सहित सभी विरोधी दलों के सभी प्रमुख नेताओं को जेल भेज दिया गया । जेल मे वे अस्वस्थ हो गए क्रमशः उनकी स्थिति नाजुक होती गई । दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और फिर बम्बई के जसलोक अस्पताल में डायलिसिस के सहार चिकित्सा चलती रही । जनवरी, 1977 मे देश में आम चुनाव की घोषणा हुई तो जयप्रकाश ने सभी विरोधी दलों को एक मंच पर इकटठा किया, जिसमें भिन्न सिद्धांतों के गठजोड़ से जनता पार्टी का जन्म हुआ और मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में केन्द्र में जनता सरकार गठित हुई । उनका स्वास्थ्य ज्यादा साथ नहीं दे सका, अंततः 8 अक्टूबर, 1979 को उनका देहांत हो गया । आज बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में इनके अनुयायी ही सक्रिय है ।

25 September, 2015

दिल्ली में डेंगू

सुनो भाई चंगू मंगू,
देखो आया दिल्ली में डेंगू l
चारो तरफ कोहराम मचाया,
सोती सरकार को जगाया ।
जब से डेंगू आई है,
डॉ साहेब की निंद हेराई है ।
बीमारी सुनकर जनता दंग,
मच्छर साहेब बजाते मृंदग l
मुझ पर तो तुने काबू पाया,
लो मुझसे बड़ा मेरा चाचा आया।
छोड़ो दिल्ली भागो काठमांडू,
सुनो भाई चंगू मंगू,
देखो आया दिल्ली में डेंगू।
यहां नया संविधान है और  नई सरकार है।
बीमारी से लड़ने को मिला,
तेजधार वाली नई तलवार है ।
रामदेव बाबा ने उपाय सुझाया,
स्वदेशी घरेलू उपचार बताया ।
अंग्रेजी दवा लेता खुन चुस ,
उससे अच्छा बकरी दूध, पपिता का जुस।
तुम सब को पता है,
कौरव से अच्छा था पांडू।
सुनो भाई चंगू मंगू,
देखो आया दिल्ली में डेंगू ।

17 September, 2015

शायरनामा

दोस्तो नमस्कार,
                 कुछ खट्टे मिठ्ठे शायराना अंदाज में शेर प्रस्तुत है ।


बिन दिये पानी गुलाब में,
                  कली नहीं खिल सकती ।
असेम्बली में सीट भले ही मिल जाए ।
                  बस में सीट नहीं मिल सकती ।


ओ सुपुत्र के नाम पर कसम खाने वाले धरनेबाज ।
ईमानदारी के लिए इस तरह फाइट करते नहीं देखी ।
गुजरे जमाने की शायद याद नहीं,
आधी अंधेरी रात में ब्लैक को वाईट भी करते नहीं देखी ।


सुना है जमान की मिल्कियत में
तरबदर हुश्न भी बिक जाती है ।
थोड़ा सब्र रख जमाने की मलिका ।
तेरे स्वागत में जेठ की दोपहरी में भी घटा छा जाती है ।

13 September, 2015

हिन्दी की पोषण

किसी भी देश की राष्ट्रभाषा वहां की ज्ञान, चेतना और चिंतन की मूल धुरी होती है । ऐसे मे, हमारे ही घर-परिवारों में हिन्दी की उपेक्षा चिंतनीय है । अपनी राष्ट्रभाषा को मान देने की आकांक्षा कहीं गुम है । इसीलिए हर परिवार, हर नागरिक इसे अपना कर्तव्य समझे । जो राष्ट्रभाषा हिन्दी हमारी अस्मिता और सम्प्रभुता की प्रतीक है वह अपने आंगन में बेगानी-सी खड़ी है । ऐसे में जरूरी है कि भाषा को समृद्ध करने का प्रयाश हर भारतीय परिवार करे और समाज भी इसमे सकारात्मक सहयोग दे ।

राष्ट्रभाषा को मान और सम्मान दिलाने का काम केवल सरकारी प्रयासों और स्कूलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता । समाज और परिवार की भूमिका भी बड़ी अहम है । हिन्दी हमारी अपनी राजभाषा और मातृभाषा है । यदि हमारे परिवारों में कोई बच्चा अंग्रेजी शब्द का गलत उच्चारण भी करता है तो घर-परिवार के लोग उसे टोक देते हैं पर हिन्दी के मामले में इतनी सतर्कता देखने को नहीं मिलती । हमारा देश हिन्दी भाषी देश है । लेकिन हिन्दी के प्रति जो रवैया हमारे समाज और परिवार में देखने को मिलता है वह न केवल दुखद है बल्कि चिंतनीय भी है । मात्र स्कूली शिक्षा और सरकारी प्रयासों और सेमिनारों से हिन्दी को हमारे मन और जीवन में स्थान नहीं दिला सकता । हमारे घरों में बेगानेपन का दंश झेल रही हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहन देने की शुरुआत और सद्प्रयास हमें अपने घरों के भीतर ही करना होगा । आने वाली पीढियों के मन में अपनी भाषा के लिए सम्मान और प्रेम हो न कि स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा होने के नाते उसे जानने और पढ़ने की विवशता ।

हिन्दी का बेगानापन

हिन्दी को कामकाज की भाषा बनाने की कितनी ही दलीलें क्यों न दी जाएं पर अच्छी नौकरियों में प्राथमिकता अंग्रेजी बोलने और जानने वालों को दी जाती है । ये मुट्ठीभर अंग्रेजी पढ़ने और समझने वाले ही पद पाकर देश की दशा और दिशा तय करते हैं और हिन्दी के जानकार मन मसोस कर रह जाते हैं । आजादी के बाद का हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का सपना आज भी अधूरा है । सरकारी संस्थान हिन्दी को तिरस्कार ही देते आए है वहीं राजभाषा अधिनियम के चलते भले ही कुछ काम हिन्दी में करना पड़े, पर अधिकता अंग्रेजी को ही रहती है यानि देश के अंदर आज भी हिन्दी अपनी पहचान और हक तलाश रही है । इसकी वजह देश की भाषाई अनेकता जैसे कारण भी है यथा मिजोरम, नागालैंड. तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक, असम, गोवा और उतर-पूर्वी राज्य खुद को हिन्दी से नहीं जोड़ पाए है । खेद की विषय है कि राष्ट्रभाषा के नाम पर आज भी देश एकमत नहीं है मगर समय की मांग है कि शासन के स्तर पर इस दिश में सहमति बनाते हुए सार्थक और दृढ़तापूर्वक किया जाए ।

हिन्दी का सफरनामा

हिन्दी की संस्कृत के अति क्लिष्ट स्वरूप और अरबी, फारसी जैसी  विदेशी और पाली, प्राकृत जैसी देसी भाषाओं के मिश्रण ने व्यापक आधार प्रदान किया है । जिस भाषा को इतनी सारी बोलियां और भाषाएं सीचें, उसके गठन की मजबूती का अंदाजा लगाया जा सकता है । देखा जाए तो पुरातन हिन्दी का अपभ्रंश के रूप में जन्म 400 ई. से 550 ईं. में हुआ जब वल्लभी के शासन धारसेन ने अपने अभिलेश में अपभ्रंश साहित्य का वर्णन किया । प्राप्त प्रमाणों में 933 ईं. की श्रावकवर नामक पुस्तक अपभ्रंश हिन्दी का पहला ग्रंथ है परन्तु अमीर खुसरो हिन्दी के वास्तविक जन्मदाता थे, जिन्होंने 1283  में खड़ी बोली हिन्दी को इसका नाम हिन्दवी दिया । बस, तब से ही यह हिन्दवी, हिन्दी बनती गई, बढ़ती चढ़ती गई है और पूरी दुनिया में निरंतर पल्लवित-पुष्पित हो रही है ।