18 June, 2021
"जाती" और "जाति" की 'ऐसी की तैसी'
06 June, 2021
हादसा
02 June, 2021
दो जून की रोटी
22 May, 2021
जनता हुआ निठल्ला
जनता हुआ निठल्ला ।
एक-साथ सब अंधभक्त बोले,
सबकुछ बल्ले-बल्ले ।
साहब, तुम्हारे राम राज में,
जनता हुआ निठल्ले ।
खत्म हुआ सरकारी नौकरी,
खत्म सरकारी कम्पनी,
युवा सब बेहाल हुए,
भाग्य को कोसे अपनी ।
पग-पग पर पूँजीपति खेले,
लूट का खेल खुल्ला ।
साहब तुम्हारे राम राज में,
जनता हुआ निठल्ला ।
निजीकरण से खत्म हुये नौकरियाँ,
सरकारीकरण मांगे हर पल ।
रेलवे, एयरपोर्ट सब बेच दिये,
बचा केवल नदी, समुदर के जल ।
महामारी में भी चुनाव कराते,
वाह रे ‘सत्तालोभी पिल्ला’ ।
साहब तुम्हारे राम राज में,
जनता हुआ निठल्ला ।
साधु-संत-सी डाढ़ी बढ़ाकर,
फेकते जुमला भाषण ।
घड़ियाली आंसु बहाकर,
जनता को कराते ढ़ोगासन ।
काश लोग अब भी कहते
‘मेरा साहब नल्ला’ ।
साहब तुम्हारे राम राज में,
जनता हुआ निठल्ला ।
निठल्ला- जिसके पास कोई काम-धंधा न हो; बेरोज़गार,
नल्ला- कुछ भी न करने वाला,
लेखक- जेपी हंस
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19 May, 2021
पारुल खख्खर - शववाहिनी गंगा की कवयित्री
पारुल खख्खर एक गुजराती लेखिका है । वह न लिबरल है, न वामी, न ही वह विरोध,
प्रतिरोध, असहमति की कवि भी कभी रही । असल में तो वे हिन्दुत्वी जमात की लाडली रही
हैं । आर.एस.एस के गुजरात मुखपत्र से जुडे ‘राजनीतिक इतिहासकार’ मोदी
द्वारा पदमश्री से सम्मानित विष्णु पांड्या पारुल को गुजराती काव्य साहित्य की
आगामी नायिका तक बता चुके थें ।
कोरोना महामारी के इस दौर में
जहाँ सरकार द्वारा मरीजों को समय पर ऑक्सीजन न मिलना, हॉस्पिटल में बेड न मिलना,
जब हाउसफुल श्मशानों और लकड़ियों के घोर अभाव के चलते उन्हे गंगा में खुले बहा
देना, हाथ-भर जमीन में गड्ढा खोदकर जैसे-तैसे दफनाने और गंगा जैसी पावन नदियों में
लाश बहाने पर लोग मजबूर हो रहे हैं ।
महामारी के इस दौर में इस महान विभीषिका को सरकार और नेताओं द्वारा
प्रायोजित बता रहे हैं, वहीं न्यायपालिका तक इसे ‘सरकारी नरसंहार’ करार देती है. ऐसे में गुजराती
कवयित्री की “शववाहिनी गंगा” कविता मौजूदा
कोरोना काल में लाशों को गंगा में दफनाने व बहाने की सरकारी नाकामी को उजागर करती
है ।
संघी आई.टी. सेल को रामराज में
मेरा साहब नंगा और रंगा-बिल्ला की उपमा कुछ ज्यादा ही मिर्ची लगने लगी है और ये सब
ठीक उसी भाषा में उसी निर्लज्जता के साथ इन कवयित्री के पीछे पड़ गए हैं जैसे वे
जेएनयू और जामिया की लड़कियों के पीछे पड़ते हैं । सिर्फ 14 पंक्तियों की इस कविता
के लिए मात्र 48 घंटों में 28 हजार गालियां- अपशब्दों से भरी टिप्पणी हासिल की है
। इसका कसूर सिर्फ इतना है कि गंगा में बहती लाशों को देखकर वे विचलित हो गई और
सरकारी नाकामियों को उजागर करती कविता लिख डाली । इस कविता को असमी, हिन्दी, तमिल,
मलयालम, भोजपुरी, अंग्रेजी, बंगाली भाषाओं में अनुवाद हो गया ।
शववाहिनी गंगा
शववाहिनी गंगा
गुजराती-कवयित्री पारुल खख्खर द्वारा रचित यह गीत दरअसल मौजूदा कोरोना-काल के दौरान गंगा में बहायी जा रही बेशुमार लाशों एवं दफनाये गये लाशों को देखकर वर्तमान सरकार की नाकामियों को नंगा करता है.
एक-साथ सब मुर्दे बोले,
‘सब कुछ चंगा-चंगा’
साब, तुम्हारे रामराज में
शववाहिनी गंगा ।
खत्म हुए श्मशान तुम्हारे,
खत्म काष्ठ की बोरी,
थके हमारे कंधे सारे
आंखे रह गयी कोरी;
दर-दर जाकर यमदूत खेले
मौत का नाच बेढंगा ।
साब, तुम्हारे राजराज में
शववाहिनी गंगा ।
नित्य निरंतर जलती चिताएं
राहत मांगे पल-भर;
नित्य निरंतर टूटती चूडियां,
कुटती छाती घर-घर;
देख लपटों को फिडल बजाते
वाह रे ‘बिल्ला- रंगा’ ।
साब, तुम्हारे राजराज में
शववाहिनी गंगा ।
साब, तुम्हारे दिव्य वस्त्र,
दिव्यत तुम्हारी ज्योति
काश, असलित लोग समझते,
हो तुम पत्थर, न मोती,
हो हिम्मत तो आके बोलो
‘मेरा साहब नंगा’
साब, तुम्हारे रामराज में
शववाहिनी गंगा ।
लेखिका- पारुल खख्खर (गुजराती)
(गुंजराती से अनुवाद- इलियास शेख)
(पारुल खख्खर की विशेष परिचय अगले ब्लॉग में...)
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